श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
श्रीराधा का त्यागमय एकांकी निर्मल भावसब ओर से मेरे सारे बन्धन खुल गये। अब तो मैं केवल उन्हीं के श्रीचरणों में बँध गयी। उन्हीं में सारा प्रेम केन्द्रित हो गया। उन्हीं का भाव रह गया। यह सारा संसार भी उन्हीं में विलीन हो गया। मेरे लिये उनके सिवा किसी प्राणी-पदार्थ-परिस्थिति की सत्ता ही शेष नहीं रह गयी, जिससे मेरा कोई व्यवहार होता। पर सखी! मैं नहीं चाहती मेरी इस स्थिति का किसी को कुछ भी पता लगे। और तो क्या, मेरी यह स्थिति मेरे प्राणप्रियतम प्रभु से भी सदा अज्ञात ही रहे। प्यारी सखी! मैं सुन्दर सरस सुगन्धित सुकोमल सुमन से (सुन्दर मन से) सदा उनकी पूजा करती रहती हूँ, पर बहुत ही छिपाकर करती हूँ; मैं सदा इसी डर से डरती रहती हूँ, कहीं मेरी इस पूजा का प्राणनाथ को पता न चल जाय। मैं केवल यही चाहती हूँ कि मेरी पवित्र पूजा अनन्त काल तक सुरक्षित चलती रहे। मैं कहीं भी रहूँ, कैसे भी रहूँ, इस पूजा का कभी अन्त न हो और मेरी यह पूजा किसी दूसरे को प्राण-प्रियतम को भी आनन्द देने के उद्देश्य से न हो, इस मेरी पूजा से सदा-सर्वदा मैं ही आनन्द-लाभ करती रहूँ। इस पूजा में ही मेरी रुचि सदा बढ़ती रहे, इसी से नित्य ही परमानन्द की प्राप्ति होती रहे। यह पूजा सदा बढ़ती रहे और यह बढ़ती हुई पूजा ही इस पूजा का एकमात्र पवित्र फल हो। इस पूजा में मैं नित्य-निरन्तर प्रियतम के अतिशय मनभावन पावन रूप-सौन्दर्य को देखती रहूँ। पर कभी भी वे प्रियतम मुझको और मेरी पूजा को न देख पायें। वे यदि देख पायेंगे तो उसी समय मेरा सारा मजा किरकिरा हो जायगा। फिर मेरा यह एकांकी निर्मल भाव नहीं रह सकेगा। फिर तो प्रियतम से नये-नये सुख प्राप्त करने के लिये मन में नये-नये चाव उत्पन्न होने लगेंगे।’ ‘यों कहकर राधा चुप हो गयीं, निर्निमेष नेत्रों से मन-ही-मन प्रियतम के रूप-सौन्दर्य को देखने लगी। |
संबंधित लेख
क्रमांक | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज