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ये श्रीराधाजी न तो साहित्यकारों या कवियों की कल्पना हैं, न श्रद्धालुओं के श्रद्धाचित्त के द्वारा निर्मित वस्तुविशेष हैं और न आध्यात्मिक तत्त्व-विशेष का रूपक ही हैं। ये नित्य सत्य सनातन भगवान् की अपृथक् आनन्दशक्ति-ह्लादिनी हैं। ‘सर्वप्रथम साहित्य-जगत् में इनकी कल्पना हुई और उस कल्पना में क्रम विकास होते-होते ये श्रद्धास्पदा शक्ति-विशेष बनकर अन्त में भगवान श्रीकृष्ण की परमाराधिका और परमाराध्या बन गयीं।’ इस प्रकार राधा के सम्बन्ध में भाँति-भाँति की कल्पना-जल्पना की गयी है- यह सत्य है; अनुभवशून्य साहित्यकारों ने श्रीराधा के सम्बन्ध में विविध विचित्र कल्पनाएँ की हैं और लौकिक श्रृंगारी कवियों ने भी अपनी मनोवृत्ति के अनुसार रचना करके श्रीराधा के परमदिव्य अत्युज्ज्वल कल्याण स्वरूप को निम्न स्तर पर लाने का प्रयास किया है।
पर ऐसी किसी भी कल्पना-जल्पना से न तो परमेश्वरी सच्चिदानन्दमयी भगवान् की नित्य ह्लादिनीशक्ति, नित्य-निकुन्जेश्वरी, रासेश्वरी, श्रीकृष्णमयी, श्रीराधाजीके अप्रतिम, अलौकिक, दिव्य स्वरूप-तत्त्व में ही किसी प्रकार की त्रुटि आयी या आ सकती है और न अनुभव की आँख रखने वाले प्रेमियों के हृदयों पर कोई प्रभाव पड़ा है; क्योंकि सत्य किसी की स्वीकृति की अपेक्षा नहीं रखता। वह तो है ही, नित्य है ही - कोई मानें या न मानें। अवश्य ही न मानने वाले परम लाभ से वंचित रह जाते हैं और अभिमान वश विरोध या खण्डन करने वाले महान् दुष्कर्म करते हैं।
श्रीराधारानी अपने सहज कृपालु-स्वभाव से उन्हें क्षमा करके भीषण नरक-यन्त्रणा से बचावें! श्रद्धा सम्पन्न प्रेमी साधकों तथा भक्तों को इन जल्पनाओं पर ध्यान न देकर श्रीराधारानी को नित्य, सत्य श्रीकृष्णानुरागमयी, साक्षात् दर्शन देकर कृतार्थ करने वाली परमशक्ति मानकर नित्य-निरन्तर साधना में संलग्न रहना चाहिये। श्रीराधारानी की कृपा से स्वयं ही उनके अन्तचक्षु खुलेंगे और वे राधारानी के प्रत्यक्ष दर्शन करके समस्त संदेहों से अतीत चिन्मयी भूमिका में पहुँच जायँगे।
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