श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
आज इन महामहिमामयी राधाजी का प्राकट्य-महोत्सव है। अतः हम राधिकाजी के महत्त्व पर कुछ विचार करके उसे जीवन में उतारने की चेष्टा करेंगे या करने का व्रत लेंगे, तभी हमारा यह महोत्सव यथार्थतः सफल होगा। तभी इसका असली लाभ प्राप्त करके हम धन्य हो सकेंगे। इस गोपी-प्रेम या राधा-प्रेम में त्याग की पराकाष्ठा है। इसीलिये यह प्रेम शिव-नारदादि के द्वारा वांछित, महातपस्वी मुनि महानुभावों के द्वारा अभीप्सित- यहाँ तक कि महान तपस्या के द्वारा ब्रह्म विद्या तक के लिये भी प्राप्तव्य है। विषयासक्त पामरों की- जो निषिद्ध भोगों के उपार्जन-सेवन में लगे रहते हैं- तो बात ही नहीं है, सकमा वैध कर्मी भी इह-पर के भोगों की वान्छा करते हैं। योगी चित्त-वृत्ति के निरोध के द्वारा परमात्म-ज्योति का दर्शन करना चाहते हैं, ज्ञानी अहं को बन्धन से मुक्त करके मोक्ष-सुख पाना चाहते हैं और निष्काम कर्मी अन्तःकरण की शुद्धि के द्वारा ज्ञान प्राप्त करना या नैष्कर्म्य-सिद्धि के द्वारा आत्म साक्षात्कार करना चाहते हैं। इन सभी में एक स्वार्थ है, अहं के मंगल की एक वासना है- चाहे वह कितनी ही ऊँची हो, कितनी ही दुर्लभ और महान हो। परंतु इस परम प्रेम के साधनों को तो आरम्भ से ही स्व-सुख-वासना के त्याग का पाठ पढ़ना पड़ता है। अहं की विस्मृति की शिक्षा ग्रहण करनी पड़ती है। इसका प्रारम्भ होता है ‘तत्सुखसुखित्व’ की पवित्र भावना से, भगवान् को परम प्रियतम मानकर उनको सुख पहुँचाने वाली त्यागमयी रसमयी कल्पना से। श्रीराधारानी और उनकी संगिनी गोपांगनाएँ इस रसमय, त्यागमय प्रेम की परम आदर्श हैं। इस आदर्श के सामने रखकर हम जितना ही स्वार्थ-त्याग करेंगे, जितना ही ‘पर’ को ‘स्व’ मानकर प्रेम भरे हृदय से उसके लिये त्याग करेंगे, उतना ही इस मार्ग में आगे बढ़ सकेंगे। होते-होते जब भगवान श्रीकृष्ण ही हमारे एकमात्र ‘स्व’ रह जायँगे, तब उनका सुख ही हमारा ‘परम स्वार्थ’ बन जाएगा, तब हमारा प्रत्येक विचार और प्रत्येक कर्म ‘भगवत्सुखार्थ’ ही होगा। यह गोपीभाव है। इस गोपीभाव की जहाँ पराकाष्ठा है और वह पराकाष्ठा भी जहाँ ससीम बनी हुई नित्य असीम अनन्त की ओर प्रवाहित हो रही है, वह है- श्रीराधाभाव। इस महाभाव की जीती-जागती प्रत्यक्ष प्रतिमा है श्रीराधाजी। |
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