श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
‘कृष्’ धातु मोक्षवाचक है, ‘न’ उत्कृष्ट का द्योतक है और ‘आ’ देने वाली का बोधक है; इस प्रकार वे श्रेष्ठ मोक्ष प्रदान करती हैं अथवा वे श्रीकृष्ण की ही तत्त्वतः नित्य अभिन्न परंतु लीला से भिन्न स्वरूपा हैं। अतः उनको ‘कृष्णा’ कहते हैं। ‘वृन्द’ शब्द सखियों के समुदाय का वाचक है और ‘अ’ सत्ता का बोधक है। सखी वृन्द उनका है- वे सखी वृन्द की स्वामिनी हैं, इसलिये ‘वृन्दा’ कहलाती हैं। वृन्दावन उनकी मधुर लीला स्थली है, विहार भूमि है; इससे उन्हे ‘वृन्दावनी’ कहा जाता है। वृन्दावन में उनका विनोद (मनोरञ्जन) होता है, अथवा उनके कारण समस्त वृन्दावन को आमोद प्राप्त होता है, इसलिये वे ‘वृन्दावनविनोदिनी’ कहलाती हैं। उनकी नखावली चन्द्रमाओं की पंक्ति के समान सुशोभित है अथवा उनका मुख पूर्ण चन्द्र के सदृश है, इससे उनको ‘चन्द्रावती’ कहते हैं। उनके दिव्य शरीर पर अनन्त चन्द्रमाओं की सी कान्ति सदा-सर्वदा जगमगाती रहती है, इसीलिये वे ‘चन्द्रकान्ता’ कही जाती हैं और उनके मुख पर नित्य-निरन्तर सैकड़ों चन्द्रमाओं की ज्योत्स्ना झलमल करती रहती है, इसी से उनका नाम ‘शतचन्द्रनिभानना’। भगवान श्रीकृष्ण की प्राणाधिका, उनके परमानन्द की प्रत्यक्ष मूर्ति राधा के इन नामों की संक्षिप्त व्याख्या से हमें राधा के महत्त्व का परिचय प्राप्त होता है। ‘राधा’ वास्तव में कोई एक मानवी नारी विशेष नहीं है। ये भगवान की साक्षात अभिन्ना शक्ति है। इसके संग से ही भगवान में सर्वशक्तिमत्ता का प्रकाश होता है। भगवान श्रीकृष्ण ने एक जगह कहा है-
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