श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
श्रीराधा के लिये श्रीकृष्ण के माधुर्या स्वादन की स्पृहा निवृत्त हो जाय, इसकी तो कल्पना भी नहीं है। कारण, प्रेम निवृत्त हो, तब कृष्ण माधुर्य स्वादन की इच्छा निवृत्त हो; श्रीराधा का प्रेम विभु होने पर भी प्रतिक्षण बढ़ता रहता है, अतः प्रतिक्षण ही उसमें श्रीकृष्ण के माधुर्य स्वादन की नित्य-नूतन योग्यता एवं स्पृहा बढ़ती रहती है। इसी प्रकार ज्यों-ज्यों श्रीराधिका में श्रीकृष्ण के माधुर्या स्वादन के द्वारा आस्वादन का माधुर्य तथा आस्वादन की तृष्ण उत्तरोत्तर बढ़ती है, त्यों-ही-त्यों श्रीकृष्ण का माधुर्य भी उत्तरोत्तर बढ़ता रहता है, उसमें पल-पल नित्य नये-नये माधुर्य का एवं नित्य नयी-नयी माधुर्य विचित्रताओं का विकास होता रहता है। श्रीराधिकाजी का काम-गन्धहीन, स्वसुख-वान्छा-वासना-कल्पना-गन्ध से सर्वथा रहित केवल कृष्ण-सुख-तात्पर्यमय विशुद्ध प्रेम निर्मल दिव्य दर्पण के समान है। जिसमें समीप की वस्तु का प्रतिबिम्ब दिखायी दे, उसे ‘दर्पण’ कहते हैं। दर्पण में यह एक विशेषता है कि किसी ज्योतिर्मयी- चमकदार वस्तु के सामने आने पर दर्पण भी ज्योतिर्मय या चमकदार बन जाता है और दर्पण में प्रति फलित ज्योति - दर्पण पर पड़ी हुई चमक उस ज्योतिर्मय- चमकदार वस्तु पर पड़कर उसे और भी अधिक ज्योतिर्मय- चमकदार बना देती है। वैसे ही निर्मल दर्पण के सदृश श्रीराधा का विशुद्ध महाभाव रूप प्रेम श्रीकृष्ण के परमोज्ज्वल माधुर्य का ग्रहण करता है। निर्मल दर्पण में जैसे वस्तु का अविकल प्रतिबिम्ब आ जाता है, उसमें कहीं भी तनिक-सी भी त्रुटि नहीं दीखती, वैसे ही स्व-सुख-वान्छाहीन या काम गन्ध रहित विशुद्ध राधा-प्रेम भी श्रीकृष्ण की सम्पूर्ण माधुरी का पूर्णरूप से आस्वादन करता है और श्रीकृष्णमाधुरी की जगमगाती ज्योति श्रीराधा प्रेमरूप दर्पण को और भी अधिक स्वच्छ एवं ज्योतिर्मय बना देती है। इसी प्रकार श्रीराधा प्रेम रूप दर्पण में प्रतिफलित ज्योति अनवरत रूप से श्रीकृष्ण के माधुर्य पर पड़ती एवं उसे और भी अधिक उज्ज्वल ज्योतिर्मय बनाती रहती है।
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