श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
नम्र निवेदन शक्ति नहीं तो शक्तिमान कैसे ? ‘रस्यते असौ इति रसः’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार रस की सत्ता ही आस्वाद के लिये है। अपने-आपको अपना आस्वादन कराने के लिये ही स्वयं रसरूप[1] श्रीकृष्ण ‘राधा’ बन जाते हैं। इसीलिये व्रज-रस में ‘राधा’ की विशेष महिमा है। श्रीकृष्ण प्रेम के पुजारी हैं, इसीलिये वे अपनी पुजारिन की पूजा करते हैं, उन्हें अपने हाथों सजाते-सँवारते हैं, उनके रूठ जाने पर उन्हें अपने प्राणों के निर्मञ्छन द्वारा प्रसन्न करते हैं। ‘चाँपत चरन मोहनलाल’ तथा — —आदि उक्तियों द्वारा रसिक कवियों ने श्रीकृष्ण की इस प्रेम प्रवणता की ओर संकेत किया है। शक्ति की प्रधानता को द्योतित करने के लिये ही ‘राधाकृष्ण’, ‘सीताराम’ आदि युगल नामों में ‘राधा’ और ‘सीता’ का नामोल्लेख पहले किया जाता है। इसी परिपाटी के अनुसार प्रस्तुत ग्रन्थ में भी ‘श्रीराधा’ शीर्षक प्रकरण को प्रथम स्थान दिया गया है। आकार की दृष्टि से भी यह प्रकरण सबसे बड़ा है। इस प्रकरण में श्रीराधा का दिव्यातिदिव्य स्वरूप, उनके प्रेम की अलौकिक महिमा, श्रीकृष्ण के साथ उनका पवित्रतम सम्बन्ध आदि दुरूह एवं गूढ़ विषयों का मार्मिक विवेचन किया गया है तथा प्रसंगवश श्रीराधा के विषय में तथा श्रीराधाकृष्ण के प्रेम-सम्बन्ध में उठायी गयी विविध शंकाओं का बड़े ही सुन्दर ढंग से समाधान किया गया है। दूसरे प्रकरण का शीर्षक है- ‘श्रीकृष्ण’। इसमें श्रीकृष्ण की पूर्ण भगवत्ता, उनका परम दिव्य स्वरूप, उनका सच्चिदानन्दमय भगवद्देह, श्रीकृष्ण के प्राकट्य की महिमा तथा उनका जन्म-महोत्सव, उनकी विरुद्धधर्माश्रयता, उनकी सर्वमान्यता, श्रीकृष्ण-चरित्र की उज्ज्वलता तथा उनको प्रियतमरूप में प्राप्त करने की साधना आदि विषयों पर प्रचुर प्रकाश डाला गया है। तीसरे प्रकरण का शीर्षक है - ‘राधा-माधव’। इसमें युगल तत्त्व की एकता, युगल-स्वरूप की उपासना, राधाकृष्ण की अष्टकालीन स्मरणीय सेवा आदि विषयों का भलीभाँति निरुपण किया गया है। इस प्रकार श्रीराधा-कृष्ण के स्वरूप को, उनके परस्पर के पवित्रम सम्बन्ध को, उनकी विभिन्न मधुर लीलाओं को - जिनमें प्रणय, मान, एवं विरह, सभी हैं - ठीक से समझने का ‘मापदण्ड’ इस ग्रन्थ में प्राप्त होता है। |
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क्रमांक | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
- ↑ ‘रसो वै सः’
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