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प्रेमी की घनीभूत गाढ़तम अवस्था या चरम परिणति का नाम ही ‘भाव’ है। इस भाव की प्रगाढ़तम अवस्था को ‘महाभाव’ कहते हैं। इसके मोदन-मादन भावों में मानद सर्वोत्कृष्ट है और यह केवल श्रीराधाजी में ही है। अतएव परम दिव्य परमोत्कृष्ट विशुद्ध प्रेम की प्रत्यक्ष मूर्ति श्रीराधाजी ही हैं।
इस भाव या महाभाव का केवल कान्ताप्रेम या माधुर्यरति में ही उदय होना सम्भव है। दास्य, सख्य और वात्सल्य में इसका विकास प्रायः नहीं होता। अतएव इस पवित्रतम प्रेम की पूर्ण परिणति और इसकी एकमात्र मूल उत्सरूपा श्रीराधाजी ही है। ये श्रीराधाजी कैसी हैं—
1- कृष्णप्रेयसी कान्तागण में सर्वशिरोमणि श्रीराधा।
लक्ष्मी-महिषी-गोपीजन की मूल, मुकुटमणि श्रीराधा।।
2- कृष्ण-प्रेम-भावित-चित्तेन्द्रिय-बुद्धि-अहं-सारा राधा।
निर्मल प्रेम पूर्ण पावन की मधुर सुधा-धारा राधा।।
3- लीलामयी, कृष्णलीला की शुचि सहायिका श्रीराधा।
कृष्ण-सुखैक-जीवना, प्रियतम-स्नेह-दायिका श्रीराधा।।
4- प्रियतम शुचि माधुर्य-सुधा की केवल आस्वादिनि राधा।
रूप-छटा से रूप-सदन-मन की नित उन्मादिनि राधा।।
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