श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
श्रीराधा-स्वरूप-गुण-महिमासत-चित-आनन्द- इन तीनों भगवत्स्वरूप गुणों को जैसे कभी एक-दूसरे से पृथक् नहीं किया जा सकता, वैसे ही संधिनी, संवित और ह्लादिनी- इन एक ही भगवत स्वरूपा चिच्छक्ति के तीन स्वरूपों को कभी एक-दूसरे से पृथक नहीं किया जा सकता। इनमें संधिनी के सार अंश का चरम परिणति का नाम- ‘शुद्धसत्त्व’। इस शुद्ध सत्त्व में ही भगवान की सत्ता स्थित है। ‘संवित’ का सार या चरम परिणति है श्रीकृष्ण का भगवत्ताज्ञान अर्थात श्रीकृष्ण ही स्वयं भगवानहैं- यह ज्ञान या अनुभव। और ह्लादिनी का सार है- विशुद्ध प्रेम, निर्मल श्रीकृष्ण सुखेच्छा रूप दिव्य वृत्ति। इच्छा मन की एक वृत्ति ही होती है। परंतु श्रीकृष्ण-सुखेच्छा वस्तुतः प्राकृत मन की वृत्ति नहीं है। यह श्रीकृष्ण की स्वरूपाशक्ति-ह्लादिनी प्रधान ‘शुद्धसत्त्व’ की एक वृत्ति है। भगवत-कृपा से भक्त का चित्त ह्लादिनी प्रधान शुद्ध-सत्त्व के साथ तादात्म्य प्राप्त करके शुद्ध सत्त्व का समानधर्मी हो जाता है। जैसे लोहा जब अग्नि के साथ तादात्म्य प्राप्त करता है, तब लोहे को आश्रय बनाकर अग्नि ही अपनी (किसी वस्तु को जला देना आदि) क्रिया करती है, परंतु वह क्रिया वहाँ कहलाती है लोहे की, उसी प्रकार शुद्ध सत्त्व के साथ तादात्म्य प्राप्त किये हुए मन के माध्यम से जब शुद्ध सत्त्व ही अपनी क्रिया करता है, तब वस्तुतः वह केवल श्रीकृष्ण-सुख के लिये होने वाली ह्लादिन्यंश-प्रधान शुद्धसत्त्व की ही वृत्ति होती है, पर वह कहलाती है ‘मन की वृत्ति’ और उसी को ‘प्रेम’ कहते हैं। नित्यसिद्ध भगवत-परिकर और उनके मन-इन्द्रियादि तो अप्राकृत विशुद्ध सत्त्वमय ही हैं। अतः उनके चित्त में तो अनादिकाल से ही शुद्ध सत्त्व की वृत्ति विशुद्ध ‘श्रीकृष्ण-प्रीति-इच्छा’ या ‘विशुद्ध प्रेम’ सहज ही वर्तमान है। साधन सिद्ध भक्तों में पीछे भगवत कृपा से इस विशुद्ध प्रेम का प्रादुर्भाव होता है। इस प्रेम का प्रादुर्भाव होने पर चित्त सम्यक-रूप से मसृण या निर्मल हो जाता है और उसमें श्रीकृष्ण के प्रति आत्यन्तिक अनन्य ममता-बुद्धि उत्पन्न हो जाती है। यही ‘प्रेम’ उत्तरोत्तर उच्च स्तर पर पहुँचते-पहुँचते ‘भाव’ रूप में परिणत होता है। |
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