श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
कहाँ तो हम, जो जरा-से त्याग या प्रेम के एक बिन्दु पर ही महान अभिमान करके अपने को परम प्रेमी मान बैठते हैं और तुरंत उस प्रेम का बहुत बड़ा बदला चाहते हैं- जो प्रेम राज्य का कलंक है; और कहाँ सर्वत्यागमयी विशुद्ध प्रेम प्रतिमा श्रीराधिकाजी— जो प्रेम, स्नेह, मान, प्रणय, राग, अनुराग और भाव के स्तरों से भी अत्युच्च स्तररूप ‘महाभाव’ की भी प्राणस्वरूपा तथा आधार स्तम्भ हैं- अपने को इस प्रकार प्रेम शून्य तथा छल-छद्मकारिणी घाषित करती हैं! पर प्रेम राज्य में अभिमान को स्थान ही नहीं। वहाँ की ‘मानलीला’ भी अभिमान शून्य परम त्यागमुक्त रसमयी होती है। यही तो इस रस का एक विलक्षण रहस्य है। राधारानी निश्चय ही परम प्रेमस्वरूपा हैं। प्रेम का स्वभाव ही है अपने में प्रेम का अभाव दिखाना, अपने को दोषों से भरे दिखाना और प्रियतम को सर्वगुणसम्पन्न, परम प्रेमी, सौन्दर्य-माधुर्य तथा गुण-गौरव में प्रतिक्षण वर्धमान दिखाना। तभी तो प्रेम प्रतिक्षण बढ़ता रहता है- ‘प्रतिक्षणवर्धमानम।’ श्रीराधा की यह उक्ति मिथ्या दैन्य या दिखावटी विनम्रता नहीं है। वस्तुतः वे ऐसा ही अनुभव करती हैं। यह दैन्यानुभव भी पवित्र भगवत्प्रेम-स्वरूप ही है। |
संबंधित लेख
क्रमांक | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज