श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
“प्यारे श्यामसुन्दर! मैंने तो तुमसे सदा लिया-ही-लिया। मैं लेती-लेती कभी थकी ही नहीं। तुम्हारे द्वारा मुझे जो प्रेम-सौभाग्य मिला, वह असीम है- उसकी कहीं कोई परिमिति ही नहीं है। परंतु मैं तो कभी कुछ भी तुम्हें दे सकी ही नहीं। तुमने मेरी त्रुटियों की ओर, मेरे दोषों की ओर कभी ताका ही नहीं, सदा देते ही रहे और देते-देते कभी थके ही नहीं, अपना सारा प्रेमामृत उँडेल दिया मुझ पर। इतने पर भी तुम यही कहते रहे कि ‘प्रिये! मैं तुमको कुछ भी नहीं दे सका। तुम-सरीखी शील गुणवती तुम्हीं हो, मैं तुम पर बलिहारी हूँ।’ मैं प्राणप्रियतम से क्या कहूँ? अपनी ओर देखकर लज्जा से गड़ी जा रही हूँ। पर तुम तो हे प्यारे नन्दकिशोर! मेरी प्रत्येक करनी में सदा प्रेम ही देखते हो।”
राधा ने सुना आज कल प्रियतम सदा सर्वत्र मेरे प्रेम की बड़ी प्रशंसा कर रहे हैं, इससे वे एक दिन उदास मन एकान्त में बैठी अपने दोषों के मानसिक चित्र अंकित कर रही थीं और हाथ की अँगुली से लाज के मारे धरती कुरेद रही थीं। इतने में ही एक सखी ने आकर उमंग भरे शब्दों में कहा— |
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