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इसी प्रकार श्रीकृष्ण सदा अपने दोष देखते और श्रीराधा की असाधारण गुणावलि पर विमुग्ध होकर उनके गुण-गान में ही अपना सौभाग्य समझते हैं। जगत के प्रेमी सिद्ध महापुरुषों के प्रेम का निर्मल उच्च आदर्श दिखलाते हुए तथा साधन एवं तत्त्व बतलाते हुए वे श्रीराधाजी से कहते हैं-
- प्रिये! तुम्हारा-मेरा यह अति निर्मल परम प्रेम-सम्बन्ध।
- सदा शुद्ध आनन्दरूप है इसमें नहीं काम-दुर्गन्ध।।
- कबसे है, कुछ पता नहीं, पर जाता नित अनन्त की ओर।
- पूर्ण समर्पण किसका किसमें, कहीं नहीं मिलता कुछ छोर।।
- सदा एक, पर सदा बने दो करते लीला-रस-आस्वाद।
- कभी न बासी होता रस यह, कभी नहीं होता बिस्वाद।।
- नित्य नवीन मधुर लीला-रस भी न भिन्न, पर रहता भिन्न।
- नव-नव रस-सुख-सर्जन करता, कभी न होने देता खिन्न।।
- परम सुहृदय, धन परम, परम आत्मीय, परम प्रेमास्पद रूप!
- हम दोनों दोनों के हैं नित, बने रहेंगे नित्य अनूप।।
- कहते नहीं, जनाते कुभी भी, कभी परस्पर भी यह बात।
- रहते बसे हृदय में दोनों, दोनों के पुनीत अवदात।।
- नहीं किसी से लेन-देन कुछ, जग में नहीं किसी से काम।
- नहीं कभी कुछ इन्द्रिय-सुख की कलुष कामना अपगति-धाम।।
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