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पर प्रेममय ज्ञानी पुरुषों के साथ वे जब यहाँ पहुँचते हैं, तब रस दर्शन के लिये वे छिप जाते हैं और अपने ही परम फलस्वरूप श्रीराधाकृष्ण की रसमयी चिन्मय अविरल केवलानन्दरस-सुधा-प्रवाहिणी लीला देख-देखकर अपूर्व अतुलनीय आनन्द लाभ करते और कृतकृत्य होते हैं; ज्ञान-विज्ञान का जीवन यहाँ सार्थक हो जाता है। वे चुपचाप छिपे हुए रस-पान करते रहते हैं, कभी भी प्रकट होकर लीला-रस में विघ्न नहीं डालते; क्योंकि इस प्रेम-रस में ज्ञान की खटाई पड़ते ही यह फट जाता है। वहाँ इसमें अलौकिक लीला की अनन्त मधुर तरंगें नित्य उठती रहती हैं। यह वही रस है, जो सभी रसों को उद्गमस्थान नित्य महान परम मधुर रस है।
वस्तुतः निरतिशय रस मय श्रीभगवान ही यहाँ महाभाव-परिनिष्ठित होकर रस रूप में भी प्रकट रहते हैं। देवता, भाग्यवान असुर, किनर, ऋषि, मुनि, पवित्र तपस्वी, परम पवित्र सिद्ध पुरुष- सभी इसके लिये ललचाते रहते हैं; पर इसे पाना तो दूर रहा, इस मन भावन रस मय भाव राज्य को वे देख भी नहीं पाते। कर्म-कुशल कर्मी, समाधिनिष्ठ योगी और छिन्नग्रन्थि ज्ञानी पुरुष इस रस मय भाव राज्य की कल्पना भी नहीं कर पाते, इसका अर्थ ही उनकी समझ में नहीं आता। इसी से वे इसकी अवहेलना करते हैं।
इस भावराज्य में निवास करने वाली रासलीला-निरत, रस-सेवा की जीती-जागती मूर्ति जो परम श्रेष्ठ दिव्य सखी, सहचरी, मन्जरियाँ हैं, अति श्रद्धा के साथ जो उनकी चरण-रज का सेवन करता है, जो तर्कशून्य साधक अपने रसयुक्त हृदय को भावराज्य के उज्ज्वल भावों से भरता रहता है, जो तुच्छ घृणित भोगों से और कैवल्य मोक्ष से सदा विरक्त रहता है और जिसका हृदय निरन्तर भाव राज्य के आराध्यस्वरूप श्रीराधा-माधव के चरणों में ही आसक्त रहता है, वही भावराज्य के किसी महान जन का- किसी मन्जरी का कृपाकण प्राप्त कर सकता है और वही जन इस परम भाव राज्य की सीमा में प्रवेश कर सकता है।
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