श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
प्राणाधिके! तुम्हें देखकर, तुम्हें पाकर मैं रस सिन्धु में निमग्न हो जाऊँ– इसमें तो कहना ही क्या है; तुम्हारा नाम भी मुझे कितना प्रिय है, यह कैसे बताऊँ? सुनो; जिस समय किसी के मुख से केवल ‘रा’ सुन लेता हूँ, उस समय आनन्द से भरकर अपने कोष की बहुमूल्य सम्पत्ति, मेरी भक्ति - मेरा प्रेम मैं उसे दे देता हूँ; फिर भी मन में भयभीत होता हूँ कि मैं तो इसकी वन्चना कर रहा हूँ, ‘रा’ उच्चारण का उचित पुरस्कार तो मैं इसे दे नहीं सका। तथा जिस समय वह ‘धा’ का उच्चारण करता है, उस समय यह देखकर कि वह मेरी प्रिया का नाम ले रहा है, मैं उसके पीछे-पीछे चल पड़ता हूँ- केवल नाम-श्रवण के लोभ से; यह ‘राधा’ नाम मेरे कानों में तुम्हारी स्मृति की सुधा-धारा बहा देता है, मेरे प्राण शीतल- रस मय हो जाते हैं।” इस प्रकार रसिकेश्वर राधानाथ अपनी प्रिया को अतीत की स्मृति दिलाकर, स्वरूप की स्मुति कराकर, उन्हीं के नाम की सुधा से उनको सिक्तकर प्रियतमा श्रीराधा का आनन्द वर्द्धन करने लगते हैं। राधा भाव सिन्धु में भी तरंगें उठने लगती हैं, भाव के आवर्त बन जाते हैं; आवर्त राधा नाथ को रस के अतल-तल में डुबाने ही जा रहे थे कि उसी समय माला-कमण्डलु धारण किये जगद्विधाता चतुर्मुख ब्रह्मा आकाश से नीचे उतर आते हैं, राधा-राधानाथ के चरणों में वन्दना करते हैं। पुष्कर तीर्थ में साठ हजार वर्षों तक विधाता ने श्रीकृष्णचन्द्र की आराधना की थी, राधा-चरणारविन्द-दर्शन का वर प्राप्त किया था; उसी वर की पूर्ति के लिये एवं राधानाथ की मनोहारिणी लीला में एक छोटा-सा अभिनय करने के लिये योग माया प्रेरित वे उपयुक्त समय पर आये हैं। भक्ति नतमस्तक, पुलकितांग, साश्रुनेत्र हुए विधाता बड़ी देर तक तो रासेश्वर की स्तुति करते रहे। फिर रासेश्वरी के समीप गये। अपने जटा-जाल से श्रीराधा के युगल चरणों की रेणुकणि का उतारी, रेणुकण से अपने सिर का अभिषेक किया; पश्चात कमण्डलु-जल से चरण-प्रक्षालन करने लगे। |
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