श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
इतनें में मानो कोटि सूर्य एक साथ उदय हुए हों, इस प्रकार दिशाएँ उद्भासित हो गयीं तथा वह झंझावात तो न जाने कहाँ चला गया। नन्दराय आँखें खोलकर देखते हैं- सामने एक बालिका खड़ी है ‘हैं ..........हैं! वृषभानुकुमारी! तू यहाँ इस समय कैसे आयी, बेटी?’ व्रजेश्वर ने अकचकाकर कहा। किंतु दूसरे ही क्षण अन्तहृदय में एक दिव्य ज्ञान का उन्मेष होने लगता है, मौन होकर ये वृषभानुनन्दिनी की ओर देखने लगते हैंकोटि चन्द्रों की द्युति मुख-मण्डल पर झलमल-झलमल कर रही है, नीलवसन-भूषित अंग हैं; श्री अंगों पर कान्ची, कंकण, हार अंगद, अंगुलीयक, मन्जीर यथा स्थान सुशोभित हैं; चन्चल कर्ण कुण्डलों तथा दिव्यातिदिव्य रत्न-चूड़ामणि से किरणें झर रहीं हैं; अंगों के तेज का तो कहना ही क्या, वुषभानुकुमारी की अंग प्रभा से ही वन आलोकित हुआ है। |
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