देवेश्वर! जो दूसरे उपायों का भरोसा छोड़कर एक बार हम दोनों की शरण में आ जाता है और गोपी भाव से मेरी उपासना करता है, वही मुझे पा सकता है। जो एक बार हम दोनों की शरण में आ जाता है अथवा अकेली मेरी इस प्रिया राधा की ही अनन्य भाव से उपासना करता है, वह मुझे अवश्य प्राप्त होता है। इसलिये सर्वथा प्रयत्न करके मेरी इस प्रिया (राधा) की शरण ग्रहण करनी चाहिये। रुद्र! मेरी प्रिया का आश्रय लेकर तुम भी मुझे अपने वश में कर सकते हो। यह बड़े रहस्य की बात है, जिसे मैंने तुम्हें बता दिया है। तुम्हें यत्नपूर्वक इसे छिपाये रखना चाहिये। अब तुम भी मेरी प्रियतमा श्रीराधा की शरण लो और मेरे युगल-मन्त्र का जप करते हुए सदा मेरे इस धाम में निवास करो।’
- एक प्रसंग में भगवती पार्वती से पूछने पर भगवान शंकर श्रीकृष्ण के श्रीअंगों का और उनके नख-शिख-शोभा- श्रृंगार का वर्णन करते हुए तथा उनके महत्त्व का विवेचन करते हुए कहते हैं-
- केचिद्वदन्ति तस्यांशं ब्रह्म चिद्रूपमद्वयम्।
- तद्दशांशं महाविष्णुं प्रवदन्ति मनीषिणः।।
- योगीन्द्रैः सनकाद्यैश्च तदेव हृदि चिन्त्यते।
- तिर्यग्ग्रीवजितानन्तकोटिकन्दर्पसुन्दरम्।।
- सापांगेक्षणसस्मेरकोटिमन्मथसुन्दरम्।
- कुन्चिताधरविन्यस्तवंशीमन्जुकलस्वनैः।
- जगत्त्रयं मोहयन्तं मग्नं प्रेमसुधार्णवे।।[1]
‘कुछ विद्वानों का कथनहै कि चिद्रूप अद्वितीय ब्रह्म उनका (श्रीकृष्ण का) अंश है। अनेक मनीषीगण महाविष्णु को उनका दशमांश बतलाते हैं। सनकादि योगीश्वर अपने हृदय में इनका सदा चिन्तन करते हैं। जिस समय वे गर्दन टेढ़ी करके खड़े होते हैं, उस समय अनन्तकोटि कामदेवों से भी अधिक सुन्दर दीखते हैं।
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