श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
श्रीकृष्ण मुझे देखकर हँसे। उनकी वाणी में अमृत भरा था। वे मुझसे बोले-“रुद्र! तुम्हारा मनोरथ जानकर आज मैंने तुम्हें दर्शन दिये हैं। इस समय मेरे जिस अलौकिक रूप को तुम देख रहे हो, यह निर्मल प्रेम का पुन्ज है। इसके रूप में सत, चित और आनन्द की मूर्तिमान किए हुए हैं। उपनिषदों के समूह मेरे इसी स्वरूप को निराकार, निर्गुण, व्यापक, निष्क्रिय और परात्पर बतलाते हैं। मेरे दिव्य गुणों का अन्त नहीं है तथा उन गुणों को कोई सिद्ध नहीं कर सकता, इसीलिये वेदान्त-शास्त्र मुझ ईश्वर को ‘निर्गुण’ बतलाता है। महेश्वर! मेरा यह रूप चर्मचक्षुओं से नहीं देखा जा सकता, अतः सम्पूर्ण वेद मुझे अरूप-‘निराकार’ कहते हैं। मैं अपने चैतन्य-अंश से सर्वत्र व्यापक हूँ, इससे विद्वान लोग मुझे ‘ब्रह्म’ के नाम से पुकारते हैं। मैं इस प्रपन्च का कर्ता नहीं हूँ, इसलिये शास्त्र मुझे ‘निष्क्रिय’ बताते हैं। शिव! मेरे अंश ही माया मय गुणों के द्वारा सृष्टि-संहार आदि कार्य करते हैं, मैं स्वयं कुछ भी नहीं करता। महादेव! मैं तो इन गोपियों के प्रेम में विह्वल होकर न तो दूसरी कोई क्रिया जानता हूँ और न मुझे अपने-आप का ही भान रहता है। ये मेरी प्रिया राधिका है, इन्हें ‘परा देवता’ समझो। मैं इनके प्रेम के वशीभूत होकर सदा इन्हीं के साथ विचरण करता हूँ। इनके पीछे और अगल-बगल में जो लाखों सखियाँ हैं, वे सब-की-सब नित्य हैं। जैसा मेर विग्रह नित्य, वैसे ही इनका भी है। मेरे सखा, पिता, गोप, गौएँ तथा वृन्दावन-ये सब नित्य हैं। इन सबका स्वरूप सच्चिदानन्द रस मय ही है। मेरे इस वृन्दावन का नाम आनन्द कन्द समझो। इसमें प्रवेश करने मात्र से मनुष्य को पुनः संसार में जन्म नहीं लेना पड़ता। मैं वृन्दावन छोड़कर कहीं नहीं जाता। अपनी इस प्रिया के साथ सदा यहीं निवास करता हूँ। रुद्र! तुम्हारे मन में जिस-जिस बात को जानने की इच्छा थी, वह सब मैंने बता दी। बोलो, इस समय मुझसे और क्या सुनना चाहते हो?” तब मैंने कहा-‘प्रभो! आपके इस स्वरूप की प्राप्ति कैसे हो सकती है, इसका उपाय मुझे बताइये।’ भगवान ने कहा-‘रुद्र! तुमने बहुत अच्छी बात पूछी है; किंतु यह विषय अत्यन्त रहस्य का है, इसलिये इसे यत्नपूर्वक गुप्त रखना चाहिये। |
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