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श्रीराधा और श्रीकृष्ण का स्वरूप
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श्रीराधा श्रीकृष्णार्द्धागङसम्भूता होने से श्रीकृष्ण स्वरूपा ही हैं। लीला रसास्वादन के लिये द्विविध प्रकाश है। दोनों ही सच्चिदानन्दमय एक तत्त्व-वस्तु है। उसमें न स्त्री है न पुरुष। केवल लीला-विलास है। दोनों ही काम-गन्ध-शून्य सच्चिदानन्द भगवद्विग्रह हैं। शुक्र-शोणित-जनित, कर्मजनित और पञ्चभूत-निर्मित देह इनके नहीं हैं। अतएव इनमें काम-क्रोधादि के लेश की कल्पना भी नहीं है। सभी कुछ सच्चिद्घन है। इस जगत के ‘काम’ में केवल तामसिक अन्धकार है, इसी से उसका क्षय-विनाश है। श्रीवृन्दावन का यह चिन्मय रस है, वहाँ प्रकाश-ही-प्रकाश है। इसमें उत्तरोत्तर वृद्धि-ही-वृद्धि है। रूप में, सौन्दर्य में, लीला में, प्रेम में और आनन्द में- सर्वत्र, सर्वदा और सर्वथा। हेमकान्त मणि और नीलकान्त मणि में मानो होड़ लगी है। इस युगल-प्रेम-सुधा-रस की प्राप्ति योगियों को अनन्त-काल तक समाधि लगाने पर भी नहीं होती। केवल ज्ञान चर्चा करने वाले तो इसमें प्रवेश ही नहीं पा सकते। इसी को ‘दिव्य परमोन्मत्त उज्ज्वल’ रस कहते हैं।
श्रीराधाकृष्ण के इस प्रणय-भाव को समझने के लिये उनके स्वरूप-तत्त्व पर कुछ और विचार करना आवश्यक है। श्रीकृष्ण के तत्त्व स्वरूप और श्रीराधा के महत्त्व का कुछ परिचय स्वयं भगवान श्रीकृष्ण के अपने शब्दों में प्राप्त कीजिये। तीन इतिहास हैं- एक भगवान व्यास का, दो भगवान शंकर के।
- व्यासजी ने एक बार कई हजार वर्षों तक घोर तपस्या की। भगवान ने प्रसन्न होकर उन्हें वर माँगने के लिये कहा। व्यासजी ने भगवान से कहा- ‘मधुसूदन! मैं आपके उस यथार्थ तत्त्व का आँखों के द्वारा दर्शन करना चाहता हूँ। नाथ! जो इस जगत् का पालक और प्रकाशक है, उपनिषदों ने जिस सत्य स्वरूप परब्रह्म बतलाया है, आपका वही अद्भुत रूप मेरे सामने प्रत्यक्ष प्रकट हो- यही मेरी प्रार्थना है।’
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