श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
जिसमें पुत्र-कन्या के लालन-पालनादि की तथा अपने रक्षणावेक्षण की कोई आशा-आकांक्षा नहीं है, ‘श्रीकृष्ण को सुख देना’ और ‘उनसे सुख प्राप्त करना’- यों सम रस-विलास है, वहाँ ‘समन्जसा’ रति है। इसमें आशा-आकांक्षा न होने पर भी परस्पर रूप गुण जनित सुखभोग की प्रधानता है। अतएव यह भी ‘समर्था’ रति नहीं है। इसी से मथुरा वासिनी देवियाँ कहती हैं—
‘सखी! पता नहीं, गोपियों ने कौन-सी तपस्या की थी, जो वे नेत्रों को दोने बनाकर नित्य-निरन्तर श्रीकृष्ण की रूप माधुरी का पान करती रहती हैं। अहा! श्रीकृष्ण का रूप क्या है- लावण्य का सार है। संसार में या उससे परे किसी का भी रूप इनके समान नहीं है, फिर बढ़कर होने की तो बात ही क्या है; यह सौन्दर्य सजाया-सँवारा हुआ नहीं है, स्वयंसिद्ध है। इस रूप को देखते-देखते कभी तृप्ति होती ही नहीं; क्योंकि यह प्रतिक्षण नया-नया होता जाता है। समग्र यश, समस्त श्री और सम्पूर्ण ऐश्वर्य इसी के आश्रित हैं। केवल श्रीगोपियाँ ही इस रस-सुधा का पान करती हैं, औरों के लिये तो यह दुष्प्राप्त ही है। |
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- ↑ श्रीमद्भा. 10। 44। 14-15
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