श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
‘गोपी यशोदा ने मुक्तिदाता भगवान श्रीकृष्ण से जो अनिर्वचनीय प्रसाद प्राप्त किया, वह प्रसाद पुत्र होने पर भी ब्रह्मा को, आत्म रूप होने पर भी शंकर को और वक्षःस्थल पर नित्य विराजिता अर्धांगिनी होने पर भी लक्ष्मी को नहीं प्राप्त हो सका।’ इसके बाद है- कान्त या मधुर-भाव या माधुर्य-रस। सभी रसों का इसमें अन्तर्भाव है। श्रीराधिका आदि गोपीजन, श्रीरुक्मिणी आदि महिषीगण और श्रीलक्ष्मीजी आदि इस मधुर भाव की आदर्श मानी गयी हैं। ‘विप्रलम्भ’ और ‘सम्भोग’ के रूप में इस मधुर भक्ति-सुधा-सरिता के दो तट हैं। पूर्वराग, मान, प्रवास आदि के रूप में विप्रलम्भ के कई भेद हैं तथा इसी प्रकार सम्भोग या मिलन के भी कई भेद हैं। गाढ़ता और मृदुता के अनुसार रति के तीन भेद माने गये हैं— ‘साधारणी’, ‘समन्जसा’ और ‘समर्था’। श्रीभगवान की द्वारका-लीला में ‘साधारणी’ रति, मथुरा में ‘समन्जसा’ रति और वृन्दावन में ‘समर्था’ रति मानी गयी है। द्वारका-लीला में यद्यपि सम्पूर्ण महाभागा महिषियों का चित्त-मन सदा ही भगवान् को समर्पित है, तथापि वे वेदविधि के अनुगत है, शास्त्र-मर्यादानुसार सुख-सौभाग्य से सम्पन्न हैं। स्वाभाविक ही गृहस्थ धर्मानुसार पुत्र-कन्यादि के लालन-पालन की आशा से युक्त हैं और उनमें आत्मसुख की आकांक्षा भी है। इस रति में ‘आत्मसुख’ और ‘कृष्णसुख’ मिश्रित हैं, अतः यह ‘साधारणी’ रति है। |
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- ↑ श्रीमद्भा. 10। 9। 20
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