श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
दास्यरस में भगवान् की सेवा के अतिरिक्त अन्य कुछ भी न तो अपेक्षित है न चिन्तनीय ही है। दास नित्य-निरन्तर भगवान् की सेवा के लिये आकुल और सेवा में ही संलग्न रहता है। इसमें स्वामि-सेवक-भाव होने से बराबरी नहीं होती। सेव्य के प्रति सम्मान-सम्भ्रम रहता है। ऐसा सेवक अखिल जगत् में जगन्नाथ के दर्शन करके नित्य सेवापरायण रहता है। सख्यरस में भगवान् के साथ तुल्यतामयी रति होती है। इसमें संकोच-सम्भ्रम तथा उतना मान-सम्मान नहीं रहता। इसमें अर्जुन-उद्धवादि ‘ऐश्वर्यज्ञानयुक्त’ सखा है और व्रज के ग्वाल-बाल ‘विशुद्ध भक्तिमय’ सखा है। सख्यरति के आदर्श ग्वालबाल भगवान् को अपनी बराबरी का मानते हैं। कंधों पर चढ़ा लेते हैं। चढ़ जाते हैं। साथ-साथ खाते-खेलते हैं। कभी मान करके रूठ जाते हैं, तब श्रीकृष्ण उनको मनाते हैं और श्रीकृष्ण का कभी जरा-सा भी मुख उदास देखते हैं तो वे सखा रो-रोकर व्याकुल हो उठते हैं और अपने प्राण देकर भी उन्हें सुखी देखना चाहते हैं।’ सख्यरस में जगत् के सभी प्राणियों के साथ सहज ‘मैत्रीभावना’ हो जाती है। वात्सल्य-रस में अपना सर्वस्व देकर प्राणों के आधार बालक भगवान की रक्षा-सेवा की जाती है। श्रीकृष्ण यशोदा मैया का स्तन्य-पान करके तथा नन्द बाबा की गोद में बैठकर जो सुख-लाभ करते हैं और जो सुख-सौभाग्य उनको देते हैं, वह किस प्रकार का होता है, कहा नहीं जा सकता। परंतु यशोदा के भाग्य की सराहना करते हुए श्रीशुकदेवजी अवश्य कहते हैं- |
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