श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
मेरी बुद्धि में यही बात आती है। माया से बालक रूप धारण करने वाले परमेश्वर महाविष्णु की जो मायामयी अचिन्त्य विभूतियाँ हैं, वे सब तुम्हारी अंशभूता हैं। तुम आनन्दरूपिणी शक्ति और सबकी ईश्वरी हो, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। निश्चय ही भगवान श्रीकृष्ण वृन्दावन में तुम्हारे ही साथ नित्य लीला करते हैं। कुमारावस्था में भी तुम अपने रूप से विश्व को मोहित करने की शक्ति रखती हो। किंतु तुम्हारा जो स्वरूप भगवान श्रीकृष्ण को परम प्रिय है, आज मैं उसी का दर्शन करना चाहता हूँ। महेश्वरि! मैं तुम्हारी शरण में आया हूँ, चरणों में पड़ा हूँ। मुझ पर दया करके इस समय अपना वह मनोहर रूप प्रकट करो, जिसे देखकर नन्दनन्दन श्रीकृष्ण भी मोहित हो जायँगे।’ यों कहकर देवर्षि नारदजी श्रीकृष्ण का ध्यान करते हुए इस प्रकार उनके गुणों का गान करने लगे- ‘भक्तों के चित्त चुराने वाले श्रीकृष्ण! तुम्हारी जय हो। वृन्दावन के प्रेमी गोविन्द! तुम्हारी जय हो। बाँकी भौंहों के कारण अत्यन्त सुन्दर, वंशी बजाने में व्यग्र, मोर पंख का मुकुट धारण करने वाले गोपीमोहन! तुम्हारी जय हो, जय हो। अपने श्रीअंगों में कुंकुम लगाकर रत्नमय आभूषण धारण करने वाले नन्दनन्दन! तुम्हारी जय हो, जय हो। अपने किशोर स्वरूप से प्रेमीजनों का मन मोहने वाले जगदीश्वर! वह दिन कब आयेगा, जब मैं तुम्हारी ही कृपा से तुम्हें अभिनव तरुणावस्था के अनुरूप अंग-अंग में मनोहर शोभा धारण करने वाली इस दिव्यरूपा बालिका के साथ देखूँगा।’ नारदजी जब इस प्रकार कीर्तन कर रहे थे, उसी समय वह नन्हीं-सी बालिका क्षणभर में अत्यन्त मनोहर दिव्यरूप धारण करके पुनः उनके सामने प्रकट हो गयी। वह रूप चौदह वर्ष की अवस्था के अनुरूप और सौन्दर्य की चरम सीमा को पहुँचा हुआ था। तत्काल ही उसी के समान अवस्था वाली दूसरी अनेकों व्रज-बालाएँ भी दिव्य वस्त्र, आभूषण और मालाओं से सुसज्जित हो वहाँ प्रकट हो गयीं तथा भानु कुमारी को सब ओर से घेरकर खड़ी हो गयीं। |
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