श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
श्रीकृष्ण राधा के मणि बन्धन में स्यमन्तक मणि बाँध देते हैं। मणि की ज्योति को देखकर श्रीराधा कहती हैं-‘बड़ा ही आश्चर्य है कि मणिविभूषित-मस्तक कालसर्प भी मुझे डँसने में देर कर रहा है। हाय! कृष्ण रहित इस जीवन का कब सदा के लिये अन्त होगा।’ श्रीकृष्ण के हृदय से चिपटी हुई श्रीराधा इस प्रकार विरह-वेदना से छटपटाती हुई मृत्यु की बाट देख रही हैं। मिलन-विरह का यह बड़ा मनोहर चित्र है।
ये विरह-मिलन-मिलन के कुछ उदाहरण हैं। ‘विप्रलम्भ’ का स्वभाव ही है -भीतर पाना और बाहर खो देना तथा ‘सम्भोग’ का स्वभाव है-बाहर पाना और भीतर खो देना। इसी से सम्भोग काल में इच्छा होती है-बाहर के प्रियतम को भीतर ले जाने की, और विप्रलम्भ में व्याकुल आग्रह होता है-भीतर के प्रियतम को बाहर लाकर उनका मुख चन्द्र देखने और उन्हें आलिंगन करने का। यद्यपि श्रीराधा के अन्तर-बाहर दोनों ही क्षेत्रों में नित्य प्रियतम श्यामसुन्दर का निवास रहता है, वे नित्य हृदय भवन में लीला-विहार करते हैं और साथ ही नित्य नेत्रों के सामने रहकर बाह्य-लीला करते रहते हैं; तथापि प्रेम की सुन्दर विचित्र स्थितियों का रसास्वादन होता रहे, इसलिये श्रीमती राधा में कभी ‘विप्रलम्भ-लीला’ की स्फूर्ति होती है और कभी ‘मिलन-लीला’ की। श्रीराधा-माधव और उन्हीं की प्रतिमूर्तियाँ श्रीगोपांगनाओं की यह पवित्रतम, मधुरतम, उज्ज्वलतम प्रेमानन्दसुधामयी लीला विविध विचित्र स्वरूपों में नित्य-निरन्तर चलती रहती है। इसके अनन्त स्वरूप हैं, अनन्त स्तर हैं। अपनी कायव्यूहरूपा श्रीगोपांगनाओं के साहायय-सहयोग से श्रीकृष्णस्वरूपा ह्लादिनी शक्ति श्रीराधारानी परम प्रियतम श्रीकृष्ण को आनन्द प्रदान करती हुई जब किसी भाग्यवान जीव पर स्वयं अथवा अपनी किसी सखी-सहचरी के द्वारा कृपा-वर्षण करती हैं, तभी जीव का विशुद्ध कृष्ण प्रेम की ओर आकर्षण होता है। |
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