श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
‘सुन्दरि! श्रीनन्दनन्दन श्याम सुन्दर का प्रेम जिसके अन्तर में प्रकट हो जाता है, उस प्रेम के वक्र-मधुर विक्रम को वही व्यक्ति जानता है। इस प्रेम में ऐसी महान् पीड़ा है कि वह नवीन कालकूट विष की कटुता के गर्व को भी दूर कर देती है। उधर जब इस प्रेम की आनन्द धारा बहने लगती है, तब वह अमृत के माधुर्य जनित अहंकार को संकुचित कर देती है।’ इसी विरह-वेदना और मिलनानन्द ने गोपी के अशुभ-शुभ को समाप्त करके उसको कर्म बीज शून्य बना दिया। ‘ललितमाधव’ के दशम अंक में श्रीकृष्ण-विरह की असीम वेदना से पीड़ित सत्यभामारूपिणी श्रीराधा भयानक सर्प-विष से विषमय हुए सरोवर में प्राण त्याग के लिये कूद पड़ती हैं। इतने में ही श्रीकृष्ण दौड़े आते हैं और पीछे से दोनों भुजाओं के द्वारा श्रीराधा का कण्ठ धारण कर लेते हैं। श्रीराधा दोनों भुजाओं को कालसर्प समझती हैं और मन-ही-मन कहती हैं कि ‘कैसा सौभाग्य है कि मैं दो सर्पों के द्वारा पकड़ ली गयी हूँ, ये अभी डँस लेंगे और डँसते ही इस विरह-दग्ध जीवन का अन्त हो जायगा। विधाता बड़ा ही अनुकूल है, जो मेरी मनचाही मृत्यु को अभी तुरंत ही बुला देगा।’ सर्प डँस नहीं रहे हैं, यह देखकर तथा स्पर्श-सुख का अनुभव करके श्रीराधा मन-ही-मन कहती हैं- ‘उपयुक्त समय पर अपकार करने वाली वस्तुएँ भी प्रिय हो जाती हैं। सर्प डँस तो नहीं रहे हैं, उलटा स्पर्श-सुख दे रहे हैं। |
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