श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
प्रेमवैचित्त्य का कितना सुन्दर और प्रत्यक्ष दृश्य है! श्रीविदग्धमाधव में आया है- श्रीयमुनाजी के तट पर श्रीराधा-माधव विहार कर रहे हैं। वृन्दादेवी कर्णभूषण के योग्य दो कमल श्रीमाधव को लाकर देती हैं। श्रीकृष्ण सहर्ष उनको लेकर श्रीराधा के कानों में पहनाने लगते हैं। इतने में ही देखते हैं कि कमल में एक भ्रमर बैठा है। भ्रमर उड़ा, श्रीराधा के मुख को कमल समझकर उसकी ओर चला, श्रीराधा ने श्रीहस्त के द्वारा उसको हटाना चाहा, भ्रमर श्रीकरतल को एक कमल समझकर उसकी ओर उड़ा। ढीठ भ्रमर जा नहीं रहा है, इससे डरकर श्रीराधा अपनी ओढ़नी का आँचल फटकारने लगीं। मधुमंगल ने छड़ी मारकर भ्रमर को बहुत दूर हटा दिया और लौटकर कहा -‘मधुसूदन (भ्रमर) चला गया।’ इतना सुनते ही ‘मधुसूदन शब्स से भगवान् श्रीकृष्ण समझकर श्रीराधाजी ‘हाय-हाय! मधुसूदन कहाँ चले गये’- पुकारकर रोने लगीं। यदिह सहसा ममत्याक्षीद्वने वनजेक्षणः।- ‘अकस्मात् कमलनयन श्रीकृष्ण इस वन में मुझको त्यागकर क्यों चले गये?’ यों कहकर वे आर्तनाद करने लगीं। अपने समीप ही प्रियतमा के इस मधुरतम प्रेम वैचित्त्य-जनित विरह को देखकर श्रीकृष्ण ने संकेत से सबको चुप हो जाने के लिये कहा और स्वयं मधुर हास्य करने लगे। ये प्रेम वैचित्त्य के उदाहरण हैं। इसी प्रकार मिलन और विरह के मिलने के भी सुन्दर उदाहरण हैं- श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध में रास पूर्णिमा की रात्रि के समय भगवान श्रीकृष्ण की मुरली ध्वनि सुनकर श्रीगोपांगनाओं के अभिसार का वर्णन है। वहाँ यह बताया गया है कि कुछ गोपांगनाएँ घरों के भीतर थीं- ‘अन्तर्गृहगताः’। उनको घरवालों ने रोक दिया, वे प्रियतम श्रीकृष्ण से मिलने के लिये बाहर जा नहीं सकीं- ‘अलब्धविनिर्गमाः’। तब उनका हृदय प्रियतम श्याम सुन्दर के भाव से परिपूर्ण हो गया। उनकी आँखें मुँद गयीं और हृदय श्रीकृष्ण की श्रीमूर्ति प्रकट हो गयी। उस अवस्था का वर्णन करते समय श्रीशुकदेवजी ने कहा है- |
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