श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
‘श्रीराधा-माधव-चिन्तन’ पर सम्माननीय विद्वानों के विचार‘श्रीराधा-माधव-चिन्तन’ पुस्तक प्रकाशित होते ही मुझे मिल गयी थी। मैंने उसका तुरंत ही पठन प्रारम्भ किया, चूँकि अधिकारी भक्त और विद्वान् की लिखी हुई थी, आद्योपान्त पढ़ गया और ऐसा भाव-विभोर हुआ कि तब से अब तक इसे अनेक बार उलट गया हूँ। मैं अपने पैतृक-संस्कारों से वैष्णव हूँ और मेरे इष्ट श्रीराधावर श्रीकृष्ण हैं। अतः अपने इष्ट का सरल साहित्य में मिला यह स्वरूप मुझे सम्मोहित करे, यह स्वाभाविक ही है। श्रीराधा और कृष्ण इन दो स्वरूपों की झाँकी, जो वास्तव में एक ही है, ‘हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता’ तथा विम्ब-प्रतिविम्ब की भाँति इस पुस्तक में एक अलग अनूठे और अपूर्व रूप में जिस तरह प्रतिविम्बित और परिलक्षित होती है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। जान पड़ता है, किसी साधक की जीवन पर्यन्त की साधना का स्वरूप साकार हो उठा है, किसी भक्त का हृदय उमड़ आया है और किसी ज्ञानी का सम्पूर्ण ज्ञान अपनी समस्त गरिमा, आभा और आलोक से भाषा और साहित्य के परिधान में इस पुस्तक में बिखर गया है। श्रद्धेय हनुमानप्रसाद जी पोद्दार एक साधक हैं, भक्त और ज्ञानी भी। उनमें गंगा यमुना और सरस्वती तीनों का संगम हुआ है। जीवन भर उन्होंने एक भक्त-हृदय से अपने इष्ट श्रीराधा और श्रीकृष्ण की साधना की है और अपनी इस साधना में वे आज भी रत हैं, अपने अन्तिम क्षण तक रहेंगे, यह भी मैं जानता हूँ। ऐसे साधक ने अपने भक्त-हृदय से भक्ति के सिन्धु का जीवन भर जो अवगाहन किया, उसे उन्होंने ज्ञान की गहराई से मोतियों का रूप दे प्रस्तुत पुस्तक में बिखेर दिया है, जिसका प्रत्येक शब्द गंगा की धारा के जल-कण की भाँति पावन, प्रवाहपूर्ण प्रेरणादायी और प्राण प्रद है। पुस्तक पढ़ते समय पाठक पुस्तक-लेखक और स्वतः अपने पाठक रूप को विस्मृत कर ऐसे भगवत्सम्पर्क में आ जाता है। जैसे कोई आत्म-संयमी साधक भक्त और ज्ञानी अपनी इष्ट-आराधना में तल्लीन हो। ग्रन्थकार की यही प्रधान विशेषता है और पुस्तक का भी यही श्रेष्ठ गुण। भाई हनुमान प्रसाद जी मेरे अग्रज-तुल्य हैं, मैं सदा से ही उन्हें एक उच्चकोटि का साधक, भक्त और ज्ञानी मानता आ रहा हूँ। ‘कल्याण’ और गीता प्रेस के अन्य प्रकाशनों में उनका यह त्रिवेणी-रूप वर्षों से प्रकाश में आता रहा है। ‘श्रीराधा-माधव-चिन्तन’ ग्रन्थ से इस प्रवाह में भक्ति-साहित्य का एक और उज्ज्वल और अपूर्व रत्न उन्होंने साहित्य-जगत को प्रदान किया, इसके लिये वे निस्संदेह मेरी, और मेरी ही क्या, हिंदी-जगत की श्रद्धा और साधु वाद के पात्र हैं और रहेंगे। |
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