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श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
वृन्दावन वास के लिये स्थिर मन की आवश्यकतामहापुरुषों के दिव्य भावश्रीजीव इस प्रकार जब निर्जन वास कर रहे थे, तब एक समय अकस्मात् श्रीसनातन गोस्वामी (श्रीरूप के बड़े भाई) वहाँ जा पहुँचे। श्रीसनातन के प्रति व्रजवासियों का बड़ा प्रेम था। व्रजवासी भक्तों ने श्रीसनातन को बताया कि ‘आजकल यहाँ नन्दघाट पर एक अत्यन्त सुन्दर तरुण तपस्वी निर्जन वन में निवास कर रहे हैं। बड़ा प्रयत्न करने पर भी वे कभी-कभी निराहार रह जाते हैं, कभी फल-मूल खा लेते हैं और कभी सत्तू ही जल में सानकर खाते हैं।’ सनातन समझ गये कि ये तपस्वी हमोर श्रीजीव ही हैं। वे अत्यन्त स्त्रेहार्द्रचित्त होकर वहाँ गये। उनको देखते ही श्रीजीव अधीर होकर उनके चरणों पर गिर पड़े। वे अपने ताऊ के चरणों में लुट पड़े और आँसू बहाने लगे। व्रजवासी बड़े आश्चर्य से इस दृश्य को देख रहे थे। श्रीजीव से बातचीत करके तथा व्रजवासियों को समझकर श्रीसनातनजी श्रीवृन्दावन चले गये। श्रीवृन्दावन में श्रीरूप गोस्वामी के पास पहुँचे। श्रीरूप गोस्वामी ने उनके चरणों में प्रणाम किया। श्रीसनातन के पूछने पर श्रीरूप ने बतलाया कि उनका भक्तिग्रन्थ-लेखन प्रायः समाप्त हो गया है। श्रीजीव होते तो शीघ्र संशोधन हो जाता। प्रसगं पाकर श्रीसनातन ने कहा- ‘श्रीजीव केवल जी रहा है, मैंने देखा, जरा-सी हवा से उसका शरीर काँप जाता है।’ इतना सुनते ही श्रीरूप का हृदय द्रवित हो गया। श्रीजीव का पता लगाकर उन्होंने तुरंत उन्हें अपने पास बुला लिया और उनकी ऐसी दशा देखकर परम कृपार्द्रहृदय से उनकी उचित सेवा-शुश्रुषा करके उन्हें स्वस्थ किया। फिर तो श्रीरूप-सनातन दोनों का सारा भार श्रीजीव ने अपने ऊपर ले लिया। श्रीजीव श्रीरूप की परिभाषा के अनुसार अब पूर्ण स्थिरचित्त थे। |
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