श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
नम्र निवेदन भक्ति-रस में व्रज-रस की माधुरी अनुपमेय है। भगवान श्रीव्रजेन्द्रनन्दन ने व्रज में प्रकट रहकर रस की जो मधुरातिमधुर धारा बहायी, उसकी जगत में क्या, विश्व-ब्रह्माण्ड में कोई तुलना नहीं है। बड़े-बड़े योगीन्द्र-मुनीन्द्र तथा ज्ञानी-विज्ञानी इस रस के लिये तरसते हैं। भाई जी[1] ने समय-समय पर इस विषय पर ‘कल्याण’ के लिये लिखे गये लेखों में, विशेष अवसरों पर पढ़े गये लिखित व्याख्यानों में तथा व्यक्तिगत पत्रों के रूप में जो कुछ लिखा है तथा दैनिक सत्सगं में अथवा अन्य समारोहों में मौखिक रूप से जो कुछ कहा है, वह आध्यात्मिक जगत की एक अमूल्य निधि है। सहृदय पाठक-पाठिकाओं का बहुत दिनों से यह आग्रह रहा है कि उनके व्रज-रस-सम्बन्धी लेखों, पत्रों आदि का एक स्वतन्त्न संग्रह पुस्तक रूप में प्रकाशित किया जाय। प्रस्तुत ग्रन्थ उसी आग्रह का सुमधुर फल है। अवश्य ही इस संग्रह में उनके उन्हीं लेखों, व्याख्यानों तथा पत्रों आदि का आंशिक समावेश हुआ है, जो मधुर रस अथवा कान्ताभाव से सम्बन्ध रखते हैं। उनके इतर रस-सम्बन्धी लेख आदि प्रायः इसमें नहीं आ पाये हैं। इनके अतिरिक्त उन्होंने मौखिक प्रवचनों एवं व्यक्तिगत पत्रों में इस विषय पर इतना अधिक कहा और लिखा है कि वह सब तो संग्रहीत हो ही नहीं सकता। विषय को भलीभाँति हृदयंगम कराने के लिये एकत्रित सामग्री को सात प्रकरणों में बाँटा गया है। पहले प्रकरण का शीर्षक है - ‘श्रीराधा’। कहना न होगा कि व्रज-रस के प्राण श्रीव्रजराजकुमार की आत्मा श्रीराधिका हैं - ‘आत्मा तु राधिका तस्य।’ एक रूप में जहाँ श्रीराधा श्रीकृष्ण की आराधिका-उपासिका हैं, दूसरे रूप में वे उनकी आराध्या उपास्या भी हैं- ‘आराध्यते असौ इति राधा’। शक्ति और शक्तिमान वस्तुतः कोई भेद न होने पर भगवान के सविशेष रूपों में शक्ति की प्रधानता है। शक्तिमान की सत्ता ही शक्ति के आधार पर है। |
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