सप्तम स्कन्ध: अथाष्टमोऽध्याय: अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: अष्टम अध्यायः श्लोक 14-23 का हिन्दी अनुवाद
इस प्रकर वह अत्यन्त बलवान् महादैत्य भगवान् के परमप्रेमी प्रह्लाद को बार-बार झिड़कियाँ देता और सताता रहा। जब क्रोध के मारे वह अपने को रोक न सका, तब हाथ में खड्ग लेकर सिंहासन से कूद पड़ा और बड़े जोर से उस खंभे को एक घूँसा मारा। उसी समय उस खंभे में एक बड़ा भयंकर शब्द हुआ। ऐसा जान पड़ा मानो यह ब्रह्माण्ड ही फट गया हो। वह ध्वनि जब लोकपालों के लोक में पहुँची, तब उसे सुनकर ब्रह्मादि को ऐसा जान पड़ा, मानो उनके लोकों का प्रलय हो रहा हो। हिरण्यकशिपु प्रह्लाद को मार डालने के लिये बड़े जोर से झपटा था; परन्तु दैत्य सेनापतियों को भी भय से कँपा देने वाले उस अद्भुत और अपूर्व घोर शब्द को सुनकर वह घबराया हुआ-सा देखने लगा कि यह शब्द करने वाला कौन है? परन्तु उसे सभा के भीतर कुछ भी दिखायी न पड़ा। इसी समय अपने सेवक प्रह्लाद और ब्रह्मा की वाणी सत्य करने और समस्त पदार्थों में अपनी व्यापकता दिखाने के लिये सभा के भीतर उसी खंभे में बड़ा ही विचित्र रूप धारण करके भगवान् प्रकट हुए। वह रूप न तो पूरा-पूरा सिंह का था और न मनुष्य का ही। जिस समय हिरण्यकशिपु शब्द करने वाले की इधर-उधर खोज कर रहा था, उसी समय खंभे के भीतर से निकलते हुए उस अद्भुत प्राणी को उसने देखा। वह सोचने लगा- 'अहो, यह न तो मनुष्य है और न पशु; फिर यह नृसिंह के रूप में कौन-सा अलौकिक जीव है।' जिस समय हिरण्यकशिपु इस उधेड़-बुन में लगा हुआ था, उसी समय उसके बिलकुल सामने ही नृसिंह भगवान् खड़े हो गये। उनका वह रूप अत्यधिक भयावना था। तपाये हुए सोने के समान पीली-पीली भयानक आँखें थीं। जँभाई लेने से गरदन के बाल इधर-उधर लहरा रहे थे। दाढ़ें बड़ी विकराल थीं। तलवार की तरह लपलपाती हुई छूरे की धार के समान तीखी जीभ थी। टेढ़ी भौंहों से उनका मुख और भी दारुण हो रहा था। कान निश्चल एवं ऊपर की ओर उठे हुए थे। फूली हुई नासिका और खुला हुआ मुँह पहाड़ की गुफा के समान अद्भुत जान पड़ता था। फटे हुए जबड़ों से उसकी भयंकरता बहुत बढ़ गयी थी। विशाल शरीर स्वर्ग का स्पर्श कर रहा था। गरदन कुछ नाटी और मोटी थी। छाती चौड़ी और कमर बहुत पतली थी। चन्द्रमा की किरणों के समान सफ़ेद रोएँ सारे शरीर पर चमक रहे थे, चारों ओर सैकड़ों भुजाएँ फैली हुई थीं, जिनके बड़े-बड़े नख आयुध का काम देते थे। उनके पास फटकने तक का साहस किसी को न होता था। चक्र आदि अपने निज आयुध तथा वज्र आदि अन्य श्रेष्ठ शस्त्रों के द्वारा उन्होंने सारे दैत्य-दानवों को भगा दिया। हिरण्यकशिपु सोचने लगा- 'हो-न-हो महामायावी विष्णु ने ही मुझे मार डालने के लिये यह ढंग रचा है; परन्तु इसकी इन चालों से हो ही क्या सकता है।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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