श्रीमद्भागवत महापुराण षष्ठ स्कन्ध अध्याय 7 श्लोक 31-40

षष्ठ स्कन्ध: सप्तम अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 31-40 का हिन्दी अनुवाद


पुत्र! हम तुम्हारे पितर हैं। इस समय शत्रुओं ने हमें जीत लिया है। हम बड़े दुःखी हो रहे हैं। तुम अपने तपोबल से हमारा यह दुःख, दारिद्य, पराजय टाल दो। पुत्र! तुम्हें हम लोगों की आज्ञा का पालन करना चाहिये। तुम ब्रह्मनिष्ठ ब्राह्मण हो, अतः जन्म से ही हमारे गुरु हो। हम तुम्हें आचार्य के रूप में वरण करके तुम्हारी शक्ति से अनायास ही शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर लेंगे। पुत्र! आवश्यकता पड़ने पर अपने से छोटों का पैर छूना भी निन्दनीय नहीं है। वेदज्ञान को छोड़कर केवल अवस्था बड़प्पन का कारण भी नहीं है।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! जब देवताओं ने इस प्रकार विश्वरूप से पुरोहिती करने की प्रार्थना की, तब परम तपस्वी विश्वरूप ने प्रसन्न होकर उनसे अत्यन्त प्रिय और मधुर शब्दों में कहा।

विश्वरूप ने कहा- पुरोहिती का काम ब्रह्मतेज को क्षीण करने वाला है। इसलिये धर्मशील महात्माओं ने उसकी निन्दा की है। किन्तु आप मेरे स्वामी हैं और लोकेश्वर होकर भी मुझसे उसके लिये प्रार्थना कर रहे हैं। ऐसी स्थति में मेरे-जैसा व्यक्ति भला, आप लोगों को कोरा जवाब कैसे दे सकता है? मैं तो आप लोगों का सेवक हूँ। आपकी आज्ञाओं का पालन करना ही मेरा स्वार्थ है।

देवगण! हम अकिंचन हैं। खेती कट जाने पर अथवा अनाज की हाट उठ जाने पर उसमें से गिरे हुए कुछ दाने चुन लाते हैं और उसी से अपने देवकार्य तथा पितृकार्य सम्पन्न कर लेते हैं। लोकपालो! इस प्रकार जब मेरी जीविका चल ही रही है, तब मैं पुरोहिती की निन्दनीय वृत्ति क्यों करूँ? उससे तो केवल वे ही लोग प्रसन्न होते हैं, जिनकी बुद्धि बिगड़ गयी है। जो काम आप लोग मुझसे कराना चाहते हैं वह निन्दनीय है-फिर भी मैं आपके काम से मुँह नहीं मोड़ सकता; क्योंकि आप लोगों की माँग ही कितनी है। इसलिये आप लोगों का मनोरथ मैं तन-मन-धन से पूरा करूँगा।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! विश्वरूप बड़े तपस्वी थे। देवताओं से ऐसी प्रतिज्ञा करके उनके वरण करने पर वे बड़ी लगन के साथ उनकी पुरोहिती करने लगे। यद्यपि शुक्राचार्य ने अपने नीतिबल से असुरों की सम्पत्ति सुरक्षित कर दी थी, फिर भी समर्थ विश्वरूप ने वैष्णवी विद्या के प्रभाव से उनसे वह सम्पत्ति छीनकर देवराज इन्द्र को दिला दी।

राजन्! जिस विद्या से सुरक्षित होकर इन्द्र ने असुरों की सेना पर विजय प्राप्त की थी, उसका उदारबुद्धि विश्वरूप ने ही उन्हें उपदेश किया था।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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