श्रीमद्भागवत महापुराण षष्ठ स्कन्ध अध्याय 4 श्लोक 16-27

षष्ठ स्कन्ध: चतुर्थ अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 16-27 का हिन्दी अनुवाद


परीक्षित! वनस्पतियों के राजा चन्द्रमा ने प्रचेताओं को इस प्रकार समझा-बुझाकर उन्हें प्रम्लोचा अप्सरा की सुन्दरी कन्या दे दी और वे वहाँ से चले गये। प्रचेताओं ने धर्मानुसार उसका पाणिग्रहण किया। उन्हीं प्रचेताओं के द्वारा उस कन्या के गर्भ से प्राचेतस् दक्ष की उत्पत्ति हुई। फिर दक्ष की प्रजा-सृष्टि से तीनों लोक भर गये। इनका अपनी पुत्रियों पर बड़ा प्रेम था। इन्होंने जिस प्रकार अपने संकल्प और वीर्य से विविध प्राणियों की सृष्टि की, वह मैं सुनाता हूँ, तुम सावधान होकर सुनो।

परीक्षित! पहले प्रजापति दक्ष ने जल, थल और आकाश में रहने वाले देवता, असुर एवं मनुष्य आदि प्रजा की सृष्टि अपने संकल्प से ही की। जब उन्होंने देखा कि वह सृष्टि बढ़ नहीं रही है, तब उन्होंने विन्ध्याचल के निकटवर्ती पर्वतों पर जाकर बड़ी घोर तपस्या की। वहाँ एक अत्यन्त श्रेष्ठ तीर्थ है, उसका नाम है- अघमर्षण। वह सारे पापों को धो बहाता है। प्रजापति दक्ष उस तीर्थ में त्रिकाल स्नान करते और तपस्या के द्वारा भगवान् की आराधना करते। प्रजापति दक्ष ने इंद्रियातीत भगवान की 'हंसगुह्य' नामक स्तोत्र से स्तुति की थी। उसी से भगवान उन पर प्रसन्न हुए थे। मैं तुम्हें वह स्तुति सुनाता हूँ।

दक्ष प्रजापति ने इस प्रकार स्तुति की- भगवन्! आपकी अनुभूति, आपकी चित्त-शक्ति अमोघ है। आप जीव और प्रकृति से परे, उनके नियन्ता और उन्हें सत्तास्फूर्ति देने वाले हैं। जिन जीवों ने त्रिगुणमयी सृष्टि को ही वास्तविक सत्य समझ रखा है, वे आपके स्वरूप का साक्षात्कार नहीं कर सके हैं; क्योंकि आप तक किसी भी प्रमाण की पहुँच नहीं है-आपकी कोई अवधि, कोई सीमा नहीं है। आप स्वयं प्रकाश और परात्पर हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ। यों तो जीव और ईश्वर एक-दूसरे के सखा हैं तथा इसी शरीर में इकट्ठे ही निवास करते हैं; परन्तु जीव सर्वशक्तिमान् आपके सख्यभाव को नहीं जानता-ठीक वैसे ही, जैसे रूप, रस, गन्ध आदि विषय अपने प्रकाशित करने वाली नेत्र, घ्राण आदि इन्द्रियवृत्तियों को नहीं जानते। क्योंकि आप जीव और जगत् के द्रष्टा हैं, दृश्य नहीं। महेश्वर! मैं आपके श्रीचरणों में नमस्कार करता हूँ।

देह, प्राण, इन्द्रिय, अन्तःकरण की वृत्तियाँ, पंचमहाभूत और उनकी तन्मात्राएँ- ये सब जड़ होने के कारण अपने को और अपने से अतिरिक्त को भी नहीं जानते। परन्तु जीव इन सबको और इनके कारण सत्त्व, रज और तम-इन तीन गुणों को भी जानता है। परन्तु वह भी दृश्य अथवा ज्ञेयरूप से आपको नहीं जान सकता। क्योंकि आप ही सबके ज्ञाता और अनन्त हैं। इसलिये प्रभो! मैं तो केवल आपकी स्तुति करता हूँ। जब समाधिकाल में प्रमाण, विकल्प और विपर्यरूप विविध ज्ञान और स्मरणशक्ति का लोप हो जाने से इस नाम-रूपात्मक जगत् का निरूपण करने वाला मन उपरत हो जाता है, उस समय बिना मन के भी केवल सच्चिदानन्दमयी अपनी स्वरूप स्थिति के द्वारा आप प्रकाशित होते रहते हैं।

प्रभो! आप शुद्ध हैं और शुद्ध हृदय-मन्दिर ही आपका निवास स्थान है। आपको मेरा नमस्कार है। जैसे याज्ञिक लोग काष्ठ में छिपे हुए अग्नि को ‘सामिधेनी’ नाम के पन्द्रह मन्त्रों के द्वारा प्रकट करते हैं, वैसे ही ज्ञानी पुरुष अपनी सत्ताईस शक्तियों के भीतर गूढ़भाव से छिपे हुए आपको अपनी शुद्ध बुद्धि के द्वारा हृदय में ही ढूँढ निकालते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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