श्रीमद्भागवत महापुराण षष्ठ स्कन्ध अध्याय 19 श्लोक 14-28

षष्ठ स्कन्ध: एकोनविंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: एकोनविंश अध्यायः श्लोक 14-28 का हिन्दी अनुवाद


प्रभो! आपकी कीर्ति पवित्र है। आप दोनों ही त्रिलोकी के वरदानी परमेश्वर हैं। अतः मेरी बड़ी-बड़ी आशा-अभिलाषाएँ आपकी कृपा से पूर्ण हों’।

परीक्षित! इस प्रकार परम वरदानी भगवान् लक्ष्मी-नारायण की स्तुति करके वहाँ से नैवेद्य हटा दे और आचमन करा के पूजा करे। तदनन्तर भक्तिभावभरित हृदय से भगवान् की स्तुति करे और यज्ञावशेष को सूँघकर फिर भगवान् की पूजा करे। भगवान् की पूजा के बाद अपने पति को साक्षात भगवान समझकर परमप्रेम से उनकी प्रिय वस्तुएँ सेवा में उपस्थित करे। पति का भी यह कर्तव्य है कि वह आन्तरिक प्रेम से अपनी पत्नी के प्रिय पदार्थ ला-लाकर उसे दे और उसके छोड़े-बड़े सब प्रकार के काम करता रहे।

परीक्षित! पति-पत्नी में से एक भी कोई काम करता है, तो उसका फल दोनों को होता है। इसलिये यदि पत्नी (रजोधर्म आदि के समय) यह व्रत करने के अयोग्य हो जाये तो बड़ी एकाग्रता और सावधानी से पति को ही इसका अनुष्ठान करना चाहिये। यह भगवान विष्णु का व्रत है। इसका नियम लेकर बीच में कभी नहीं छोड़ना चाहिये। जो भी यह नियम ग्रहण करे, वह प्रतिदिन माला, चन्दन, नैवेद्य और आभूषण आदि से भक्तिपूर्वक ब्राह्मण और सुहागिनी स्त्रियों का पूजन करे तथा भगवान् विष्णु की भी पूजा करे। इसके बाद भगवान् को उनके धाम में पधरा दे, विसर्जन कर दे। तदनन्तर आत्मशुद्धि और समस्त अभिलाषाओं की पूर्ति के लिये पहले से ही उन्हें निवेदित किया हुआ प्रसाद ग्रहण करे।

साध्वी स्त्री इस विधि से बारह महीनों तक-पूरे साल भर इस व्रत का आचरण करके मार्गशीर्ष की अमावस्या को उद्यापन सम्बन्धी उपवास और पूजन आदि करे। उस दिन प्रातःकाल ही स्नान करके पूर्ववत् विष्णु भगवान् का पूजन करे और उसका पति पाकयज्ञ की विधि से घृतमिश्रित खीर की अग्नि में बारह आहुति दे। इसके बाद जब ब्राह्मण प्रसन्न होकर उसे आशीर्वाद दें, तो बड़े आदर से सिर झुकाकर उन्हें स्वीकार करे। भक्तिभाव से माथा टेककर उनके चरणों में प्रणाम करे और उनकी आज्ञा लेकर भोजन करे। पहले आचार्य को भोजन कराये, फिर मौन होकर भाई-बन्धुओं के साथ स्वयं भोजन करे। इसके बाद हवन से बची हुई घृतमिश्रित खीर अपनी पत्नी को दे। वह प्रसाद स्त्री को सत्पुत्र और सौभाग्य दान करने वाला होता है।

परीक्षित! भगवान् के इस पुंसवन-व्रत का जो मनुष्य विधिपूर्वक अनुष्ठान करता है, उसे यहीं उसकी मनचाही वस्तु मिल जाती है। स्त्री इस व्रत का पालन करके सौभाग्य, सम्पत्ति, सन्तान, यश और गृह प्राप्त करती है तथा उसका पति चिरायु हो जाता है। इस व्रत का अनुष्ठान करने वाली कन्या समस्त शुभ लक्षणों से युक्त पति प्राप्त करती है और विधवा इस व्रत से निष्पाप होकर वैकुण्ठ में जाती है। जिसके बच्चे मर जाते हों, वह स्त्री इसके प्रभाव से चिरायु पुत्र प्राप्त करती है। धनवती किन्तु अभागिनी स्त्री को सौभाग्य प्राप्त होता है और कुरुपता को श्रेष्ठ रूप मिल जाता है। रोगी इस व्रत के प्रभाव से रोग मुक्त होकर बलिष्ठ शरीर और श्रेष्ठ इन्द्रिय शक्ति प्राप्त कर लेता है। जो मनुष्य मांगलिक श्राद्ध कर्मों में इसका पाठ करता है, उसके पितर और देवता अनन्त तृप्ति लाभ करते हैं। वे सन्तुष्ट होकर हवन के समाप्त होने पर व्रती की समस्त इच्छाएँ पूर्ण कर देते हैं। ये सब तो सन्तुष्ट होते ही हैं, समस्त यज्ञों के एकमात्र भोक्ता भगवान् लक्ष्मी-नारायण भी सन्तुष्ट हो जाते हैं और व्रती की समस्त अभिलाषाएँ पूर्ण कर देते हैं।

परीक्षित! मैंने तुम्हें मरुद्गण की आदरणीय और पुण्यप्रद जन्म-कथा सुनायी और साथ ही दिति के श्रेष्ठ पुंसवन-व्रत का वर्णन भी सुना दिया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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