श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय 9 श्लोक 40-49

प्रथम स्कन्ध: नवम अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः नवम अध्यायः श्लोक 40-49 का हिन्दी अनुवाद


जिनकी लटकीली सुन्दर चाल, हाव-भाव युक्त चेष्टाएँ, मधुर मुस्कान और प्रेमभरी चितवन से अत्यन्त सम्मानित गोपियाँ रासलीला में उनके अन्तर्धान हो जाने पर प्रेमोन्माद से मतवाली होकर जिनकी लीलाओं का अनुकरण करके तन्मय हो गयी थीं, उन्हीं भगवान श्रीकृष्ण में मेरा परम प्रेम हो। जिस समय युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ हो रहा था, मुनीयों और बड़े-बड़े राजाओं से भरी हुई सभा में सबसे पहले सबकी ओर से इन्हीं सबके दर्शनीय भगवान श्रीकृष्ण की मेरी आँखों के सामने पूजा हुई थी; वे ही सबके आत्मा प्रभु आज इस मृत्यु के समय मेरे सामने खड़े हैं। जैसे एक ही सूर्य अनेक आँखों से अनेक रूपों में दीखते हैं, वैसे ही अजन्मा भगवान श्रीकृष्ण अपने ही द्वारा रहित अनेक शरीरधारियों के हृदय में अनेक रूप-से जान पड़ते हैं; वास्तव में तो वे एक और सबके हृदय में विराजमान हैं ही। उन्हीं इन भगवान श्रीकृष्ण को मैं भेद-भ्रम से रहित होकर प्राप्त हो गया हूँ।

सूत जी कहते हैं- इस प्रकार भीष्म पितामह ने मन, वाणी और दृष्टि की वृत्तियों से आत्मस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण में अपने-आपको लीन कर दिया। उनके प्राण वहीं पर विलीन हो गये और वे शान्त हो गये। उन्हें अनन्त ब्रह्म में लीन जानकर सब लोग वैसे ही चुप गये, जैसे दिन बीत जाने पर पक्षियों का कलरव शान्त हो जाता है। उस समय देवता और मनुष्य नगारे बजाने लगे। साधुस्वभाव के राजा उनकी प्रशंसा करने लगे और आकाश से पुष्पों की वर्षा होने लगी।

शौनक जी! युधिष्ठिर ने उनके मृत शरीर की अन्त्येष्टि क्रिया करायी और कुछ समय के लिये शोकमग्न हो गये। उस समय मुनियों ने बड़े आनन्द से भगवान श्रीकृष्ण की उनके रहस्यमय नाम ले-लेकर स्तुति की। इसके पश्चात् अपने हृदयों को श्रीकृष्णमय बनाकर वे अपने-अपने आश्रमों को लौट गये। तदनन्तर भगवान श्रीकृष्ण के साथ युधिष्ठिर हस्तिनापुर चले आये और उन्होंने वहाँ अपने चाचा धृतराष्ट्र और तपस्विनी गान्धारी को ढांढश बँधाया। फिर धृतराष्ट्र की आज्ञा और भगवान श्रीकृष्ण की अनुमति से समर्थ राजा युधिष्ठिर अपने वंश परम्परागत साम्राज्य का धर्मपूर्वक शासन करने लगे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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