श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय 6 श्लोक 17-30

प्रथम स्कन्ध: षष्ठ अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धःषष्ठ अध्यायः श्लोक 17-30 का हिन्दी अनुवाद


भक्तिभाव से वशीकृत चित्त द्वारा भगवान के चरण-कमलों का ध्यान करते ही भगवत्-प्राप्ति की उत्कट लालसा से मेरे नेत्रों में आँसू छलछला आये और हृदय में धीरे-धीरे भगवान प्रकट हो गये।

व्यास जी! उस समय प्रेमभाव के अत्यन्त उद्रेक से मेरा रोम-रोम पुलकित हो उठा। हृदय अत्यन्त शान्त और शीतल हो गया। उस आनन्द की बाढ़ में मैं ऐसा डूब गया कि मुझे अपना और ध्येय वस्तु का तनिक भी भान न रहा। भगवान का वह अनिर्वचीय रूप समस्त शोकों का नाश करने वाला और मन के लिये अत्यन्त लुभावना था। सहसा उसे न देख मैं बहुत ही विकल हो गया और अनमना-सा होकर आसन से उठा खड़ा हुआ।

मैंने उस स्वरूप का दर्शन फिर करना चाहा; किन्तु मन को हृदय में समाहित करके बार-बार दर्शन की चेष्टा करने पर भी मैं उसे नहीं देख सका। मैं अतृप्त के समान आतुर हो उठा। इस प्रकार निर्जन वन में मुझे प्रयत्न करते देख स्वयं भगवान ने, जो वाणी के विषय नहीं हैं, बड़ी गंभीर और मधुर वाणी से मेरे शोक को शान्त करते हुए-से कहा- ‘खेद है कि इस जन्म में तुम मेरा दर्शन नहीं कर सकोगे। जिनकी वासनाएँ पूर्णतया शान्त नहीं हो गयीं हैं, उन अधकचरे योगियों को मेरा दर्शन अत्यन्त दुर्लभ है। निष्पाप बालक! तुम्हारे हृदय में मुझे प्राप्त करने की लालसा जाग्रत् करने के लिये ही मैंने एक बार तुम्हें अपने रूप की झलक दिखायी है। मुझे प्राप्त करने की आकांशा से युक्त साधक धीरे-धीरे हृदय की सम्पूर्ण वासनाओं का भलीभाँति त्याग कर देता है। अल्पकालीन संत सेवा से ही तुम्हारी चित्तवृत्ति मुझमें स्थिर हो गयी है। अब तुम इस प्राकृत मलिन शरीर को छोड़कर मेरे पार्षद हो जाओगे। मुझे प्राप्त करने का तुम्हारा यह दृढ़ निश्चय कभी किसी प्रकार नहीं टूटेगा। समस्त सृष्टि का प्रलय हो जाने पर भी मेरी कृपा से तुम्हें मेरी स्मृति बनी रहेगी’।

आकाश के समान अव्यक्त सर्वशक्तिमान् महान् परमात्मा इतना कहकर चुप ही रहे। उनकी इस कृपा का अनुभव करके मैंने उन श्रेष्ठों से भी श्रेष्ठतर भगवान को सिर झुकाकर प्रणाम किया। तभी से मैं लज्जा-संकोच छोड़कर भगवान के अत्यन्त रहस्यमय और मंगलमय मधुर नामों और लीलाओं का कीर्तन और स्मरण करने लगा। स्पृहा और मद-मत्सर मेरे हृदय से पहले ही निवृत्त हो चुके थे, अब मैं आनन्द से काल की प्रतीक्षा करता हुआ पृथ्वी पर विचरने लगा।

व्यास जी! इस प्रकार भगवान की कृपा से मेरा हृदय शुद्ध हो गया, आसक्ति मिट गयी और मैं श्रीकृष्ण परायण हो गया। कुछ समय बाद, जैसे एकाएक बिजली कौंध जाती है, वैसे ही समय पर मेरी मृत्यु आ गयी। मुझे शुद्ध भगवत्पार्षद-शरीर प्राप्त होने का अवसर आने पर प्रारब्ध कर्म समाप्त हो जाने के कारण पांच भौतिक शरीर नष्ट हो गया। कल्प के अन्त में जिस समय भगवान नारायण एकार्णव (प्रलयकालीन समुद्र) के जल में शयन करते हैं, उस समय उनके हृदय में शयन करने की इच्छा से इस सारी सृष्टि को समेटकर ब्रह्माजी जब प्रवेश करने लगे, तब उनके श्वास के साथ मैं ही उनके हृदय में प्रवेश कर गया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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