प्रथम स्कन्ध: अष्टादश अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः अष्टादश अध्यायः श्लोक 43-50 का हिन्दी अनुवाद
सम्राट् परीक्षित तो बड़े ही यशस्वी और धर्मधुरन्धर हैं। उन्होंने बहुत-से अश्वमेध यज्ञ किये हैं और वे भगवान के परम प्यारे भक्त हैं; वे ही राजर्षि भूख-प्यास से व्याकुल होकर हमारे आश्रम पर आये थे, वे शाप के योग्य कदापि नहीं हैं। इस नासमझ बालक ने हमारे निष्पाप सेवक राजा का अपराध किया है, सर्वात्मा भगवान कृपा करके इसे क्षमा करें। भगवान के भक्तों में भी बदला लेने की शक्ति होती है, परंतु वे दूसरों के द्वारा किये हुए अपमान, धोखेबाजी, गाली-गलौज, आक्षेप और मार-पीट का कोई बदला नहीं लेते। महामुनि शमीक को पुत्र के अपराध पर बड़ा पश्चाताप हुआ। राजा परीक्षित ने जो उसका अपमान किया था, उस पर तो उन्होंने ध्यान ही नहीं दिया। महात्माओं का स्वभाव ही ऐसा होता है कि जगत् में जब दूसरे लोग उन्हें सुख-दुःखादि द्वन्दों में डाल देते हैं, तब भी वे प्रायः हर्षित या व्यथित नहीं होते; क्योंकि आत्मा का स्वरूप तो गुणों से सर्वथा परे है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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