श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय 15 श्लोक 36-51

प्रथम स्कन्ध: पंचदश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः पंचदश अध्यायः श्लोक 36-51 का हिन्दी अनुवाद


जिनकी मधुर लीलाएँ श्रवण करने योग्य हैं, उन भगवान श्रीकृष्ण ने जब अपने मनुष्य के-से शरीर से इस पृथ्वी का परित्याग कर दिया, उसी दिन विचारहीन लोगों को अधर्म में फँसाने वाला कलियुग आ धमका। महाराज युधिष्ठिर से कलियुग का फैलना छिपा न रहा। उन्होंने देखा-देश में, नगर में, घरों में और प्राणियों में लोभ, असत्य, छल, हिंसा आदि अधर्मों की बढ़ती हो गयी हैं। तब उन्होंने महाप्रस्थान का निश्चय किया। उन्होंने अपने विनयी पौत्र परीक्षित को, जो गुणों में उन्हीं के समान थे, समुद्र से घिरी हुई पृथ्वी के सम्राट् पद पर हस्तिनापुर में अभिषिक्त किया। उन्होंने मथुरा में शूरसेनाधिपति के रूप में अनिरुद्ध के पुत्र वज्र का अभिषेक किया। इसके बाद समर्थ युधिष्ठिर ने प्राजापत्य यज्ञ करके आहवनीय आदि अग्नियों को अपने में लीन कर दिया अर्थात् गृहस्थाश्रम के धर्म से मुक्त होकर उन्होंने संन्यास ग्रहण किया।

युधिष्ठिर ने अपने सब वस्त्राभूषण आदि वहीं छोड़ दिये एवं ममता और अहंकार से रहित होकर समस्त बन्धन काट डाले। इस प्रकार शरीर को मृत्युरूप अनुभव करके उन्होंने उसे त्रिगुण में मिला दिया, त्रिगुण को मूल प्रकृति में, सर्वकारणरूपा प्रकृति को आत्मा में और आत्मा को अविनाशी ब्रह्म में विलीन कर दिया। उन्हें यह अनुभव होने लगा कि यह सम्पूर्ण दृश्यप्रपंच ब्रह्मस्वरूप है। इसके पश्चात् उन्होंने शरीर पर चीर-वस्त्र धारण कर लिया, अन्न-जल का त्याग कर दिया, मौन ले लिया और केश खोलकर बिखेर लिये। वे अपने रूप को ऐसा दिखाने लगे, जैसे कोई जड़, उन्मत्त या पिशाच हो। फिर वे बिना किसी की बाट देखे तथा बहरे की तरह बिना किसी की बात सुने, घर से निकल पड़े। हृदय में उस परब्रह्म का ध्यान करते हुए, जिसको प्राप्त करके फिर लौटना नहीं होता, उन्होंने उत्तर दिशा की यात्रा की, जिस ओर पहले बड़े-बड़े महात्माजन जा चुके हैं।

भीमसेन, अर्जुन आदि युधिष्ठिर के छोटे भाइयों ने भी देखा कि अब पृथ्वी में सभी लोगों को अधर्म के सहायक कलियुग ने प्रभावित कर डाला है; इसलिये वे भी श्रीकृष्ण चरणों की प्राप्ति का दृढ़ निश्चय करके अपने बड़े भाई के पीछे-पीछे चल पड़े। उन्होंने जीवन के सभी लाभ भलीभाँति प्राप्त कर लिये थे; इसलिये यह निश्चय करके कि भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमल ही हमारे परम पुरुषार्थ हैं, उन्होंने उन्हें हृदय में धारण किया। पाण्डवों के हृदय में भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों के ध्यान से भक्ति-भाव उमड़ आया, उनकी बुद्धि सर्वथा शुद्ध होकर भगवान श्रीकृष्ण के उस सर्वोत्त्कृष्ट स्वरूप में अनन्य भाव से स्थिर हो गयी; जिसमें निष्पाप पुरुष ही स्थिर हो पाते हैं। फलतः उन्होंने अपने विशुद्ध अन्तः’करण से स्वयं ही वह गति प्राप्त की, जो विषयासक्त दुष्ट मनुष्यों को कभी प्राप्त नहीं हो सकती। संयमी एवं श्रीकृष्ण के प्रेमोवेश में मुग्ध भगवन्मय विदुर जी ने भी अपने शरीर को प्रभास क्षेत्र में त्याग दिया। उस समय उन्हें लेने के लिये आये हुए पितरों के साथ वे अपने लोक (यमलोक) को चले गये। द्रौपदी ने देखा कि अब पाण्डव लोग निरपेक्ष हो गये हैं; तब वे अनन्य प्रेम से भगवान श्रीकृष्ण का ही चिन्तन करके उन्हें प्राप्त हो गयीं।

भगवान के प्यारे भक्त पाण्डवों के महाप्रयाण की इस परम पवित्र और मंगलमयी कथा को जो पुरुष श्रद्धा से सुनता है, वह निश्चय ही भगवान की भक्ति और मोक्ष प्राप्त करता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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