श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय 15 श्लोक 21-35

प्रथम स्कन्ध: पंचदश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः पंचदश अध्यायः श्लोक 21-35 का हिन्दी अनुवाद


वही मेरा गाण्डीव धनुष है, वे ही बाण हैं, वही रथ है, वही घोड़े हैं और वही मैं रथी अर्जुन हूँ, जिसके सामने बड़े-बड़े राजा लोग सिर झुकाया करते थे। श्रीकृष्ण के बिना ये सब एक ही क्षण में नहीं के समान सारशून्य हो गये-ठीक उसी तरह, जैसे भस्म में डाली हुई आहुति, कपटभरी सेवा और ऊसर में बोया हुआ बीज व्यर्थ जाता है।

राजन्! आपने द्वारकावासी अपने जिन सुहृद-सम्बन्धियों की बात पूछी है, वे ब्राह्मणों के शापवश मोहग्रस्त हो गये और वारुणी मदिरा के पान से मदोन्मत्त होकर परिचितों की भाँति आपस में ही एक-दूसरे से भिड़ गये और घूँसों से मार-पीट करके सब-के-सब नष्ट हो गये। उनमे से केवल चार-पाँच ही बचे हैं। वास्तव में यह सर्वशक्तिमान् भगवान की ही लीला है कि संसार के प्राणी परस्पर एक-दूसरे का पालन-पोषण भी करते हैं और एक-दूसरे को मार डालते हैं। राजन्! जिस प्रकार जलचरों में बड़े जन्तु छोटों को, बलवान् दुर्बलों को एवं बड़े और बलवान् भी परस्पर एक-दूसरे को खा जाते हैं, उसी प्रकार अतिशय बली और बड़े यदुवंशियों के द्वारा भगवान ने दूसरे राजाओं का संहार कराया। तत्पश्चात् यदुवंशियों के द्वारा ही एक से दूसरे यदुवंशी का नाश करा के पूर्णरूप से पृथ्वी का भार उतार दिया।

भगवान श्रीकृष्ण ने मुझे जो शिक्षाएँ दी थीं, वे देश, काल और प्रयोजन के अनुरूप तथा हृदय के ताप को शान्त करने वाली थीं; स्मरण आते ही वे हमारे चित्त का हरण कर लेती हैं।

सूत जी कहते हैं- इस प्रकार प्रगाढ़ प्रेम से भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों का चिन्तन करते-करते अर्जुन की चित्तवृत्ति अत्यन्त निर्मल और प्रशान्त हो गयी। उनकी प्रेममयी भक्ति भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों के अहर्निश चिन्तन से अत्यन्त बढ़ गयी। भक्ति के वेग ने उनके हृदय को मथकर उसमें से सारे विकारों को बाहर निकाल दिया। उन्हें युद्ध के प्रारम्भ में भगवान के द्वारा उपदेश किया हुआ गीता-ज्ञान पुनः स्मरण हो आया, जिसकी काल के व्यवधान और कर्मों के विस्तार के कारण प्रमादवश कुछ दिनों के लिये विस्मृति हो गयी थी। ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति से माया का आवरण भंग होकर गुणातीत अवस्था प्राप्त हो गयी। द्वैत का संशय निवृत्त हो गया। सूक्ष्म शरीर भंग हुआ। वे शोक एवं जन्म-मृत्यु के चक्र से सर्वथा मुक्त हो गये।

भगवान के स्वधामगमन और यदुवंश के संहार का वृत्तान्त सुनकर निश्चलमति युधिष्ठिर ने स्वर्गारोहण का निश्चय किया। कुन्ती ने भी अर्जुन के मुख से यदुवंशियों के नाश और भगवान के स्वधामगमन की बात सुनकर अनन्य भक्ति से अपने हृदय को भगवान श्रीकृष्ण में लगा दिया और सदा के लिये इस जन्म-मृत्युरूप संसार से अपना मुँह मोड़ लिया। भगवान श्रीकृष्ण ने लोकदृष्टि में जिस यादव शरीर से पृथ्वी का भार उतारा था, उसका वैसे ही परित्याग कर दिया, जैसे कोई काँटें से काँटा निकालकर फिर दोनों को फेंक दे। भगवान की दृष्टि में दोनों ही समान थे। जैसे वे नट के समान मत्स्यादि रूप धारण करते हैं और फिर उनका त्याग कर देते हैं, वैसे ही उन्होंने जिस यादव शरीर से पृथ्वी का भार दूर किया था, उसे त्याग भी दिया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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