प्रथम स्कन्ध: एकादश अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः एकादश अध्यायः श्लोक 15-29 का हिन्दी अनुवाद
भगवान श्रीकृष्ण ने बन्धु-बान्धवों, नागरिकों और सेवकों से उनकी योग्यता के अनुसार अलग-अलग मिलकर सबका सम्मान किया। किसी को सिर झुकाकर प्रणाम किया, किसी को वाणी से अभिवादन किया, किसी को हृदय से लगाया, किसी से हाथ मिलाया, किसी की ओर देखकर मुसकुरा भर दिया और किसी को केवल प्रेमभरी दृष्टि से देख दिया। जिसकी जो इच्छा थी, उसे वही वरदान दिया। इस प्रकार चाण्डालपर्यन्त सबको संतुष्ट करके गुरुजन, सपत्नीक ब्राह्मण और वृद्धों का तथा दूसरे लोगों का भी आशीर्वाद ग्रहण करते एवं वंदीजनों से विरुदावली सुनते हुए सबके साथ भगवान श्रीकृष्ण ने नगर में प्रवेश किया। शौनक जी! जिस समय भगवान राजमार्ग से जा रहे थे, उस समय द्वारका की कुल-कामिनियाँ भगवान के दर्शन को ही परमानन्द मानकर अपनी-अपनी अटारियों पर चढ़ गयीं। भगवान का वक्षःस्थल मूर्तिमान् सौन्दर्य लक्ष्मी का निवास स्थान है। उनका मुखाविन्द नेत्रों के द्वारा पान करने के लिये सौन्दर्य-सुधा से भरा हुआ पात्र है। उनकी भुजाएँ लोकपालों को भी शक्ति देने वाली हैं। उनके चरणकमल भक्त परमहंसों के आश्रय हैं। उनके अंग-अंग शोभा के धाम हैं। भगवान की इस छवि को द्वारकवासी नित्य-निरन्तर निहारते रहते हैं, फिर भी उनकी आँखें एक क्षण के लिये भी तृप्त नहीं होतीं। द्वारका के राजपथ पर भगवान श्रीकृष्ण के ऊपर श्वेतवर्ण का छत्र तना हुआ था, श्वेत चँवर डुलाये जा रहे थे, चारों ओर से पुष्पों की वर्षा हो रही थी, वे पीताम्बर और वनमाला धारण किये हुए थे। इस समय वे ऐसे शोभायमान हुए, मानो श्याम मेघ एक ही साथ सूर्य, चन्द्रमा, इन्द्रधनुष और बिजली से शोभायमान हो। भगवान सबसे पहले अपने माता-पिता के महल में गये। वहाँ उन्होंने बड़े आनन्द से देवकी आदि सातों माताओं को चरणों पर सिर रखकर प्रणाम किया और माताओं ने उन्हें अपने हृदय से लगाकर गोद में बैठा लिया। स्नेह के कारण उनके स्तनों से दूध कि धारा बहने लगी, उनका हृदय हर्ष से विह्वल हो गया और वे आनन्द के आँसुओं से उनका अभिषेक करने लगीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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