श्रीमद्भागवत महापुराण पंचम स्कन्ध अध्याय 8 श्लोक 26-31

पंचम स्कन्ध: अष्टम अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: अष्टम अध्यायः श्लोक 26-31 का हिन्दी अनुवाद


राजन्! इस प्रकार जिनका पूरा होना सर्वथा असम्भव था, उन विविध मनोरथों से भरत का चित्त व्याकुल रहने लगा। अपने मृगशावक के रूप में प्रतीत होने वाले प्रारब्ध कर्म के कारण तपस्वी भरत जी भगवदाराधनरूप कर्म एवं योगानुष्ठान से च्युत हो गये। नहीं तो, जिन्होंने मोक्ष मार्ग में साक्षात् विघ्नरूप समझकर अपने ही हृदय से उत्पन्न दुस्त्यज पुत्रादि को भी त्याग दिया था, उन्हीं की अन्यजातीय हरिणशिशु में ऐसी आसक्ति कैसे हो सकती थी।

इस प्रकार राजर्षि भरत विघ्नों के वशीभूत होकर योग साधन से भ्रष्ट हो गये और उस मृगछौने के पालन-पोषण और लाड़-प्यार में ही लगे रहकर आत्मस्वरूप को भूल गये। इसी समय जिसका टलना अत्यन्त कठिन है, वह प्रबल वेगशाली कराल काल, चूहे के बिल में जैसे सर्प घुस आये, उसी प्रकार उनके सिर पर चढ़ आया। उस समय भी वह हरिणशावक उनके पास बैठा पुत्र के समान शोकातुर हो रहा था। वे उसे इस स्थिति में देख रहे थे और उनका चित्त उसी में लग रहा था। इस प्रकार की आसक्ति में ही मृग के साथ उनका शरीर भी छूट गया।

तदनन्तर उन्हें अन्तकाल की भावना के अनुसार अन्य साधारण पुरुषों के समान मृग शरीर ही मिला। किन्तु उनकी साधना पूरी थी, इससे उनकी पूर्वजन्म की स्मृति नष्ट नहीं हुई। उस योनि में भी पूर्वजन्म की भगवदाराधना के प्रभाव से अपने मृगरूप होने का कारण जानकार वे अत्यन्त पश्चाताप करते हुए कहने लगे- ‘अहो! बड़े खेद की बात है, मैं संयमशील महानुभावों के मार्ग से पतित हो गया। मैंने तो धैर्यपूर्वक सब प्रकार की आसक्ति छोड़कर एकान्त और पवित्र वन का आश्रय लिया था। वहाँ रहकर जिस चित्त को मैंने सर्वभूतात्मा श्रीवासुदेव में, निरन्तर उन्हीं के गुणों का श्रवण, मनन और संकीर्तन करके तथा प्रत्येक पल को उन्हीं की आराधना और स्मरणादि से सफल करके, स्थिर भाव से पूर्णतया लगा दिया था, मुझ अज्ञानी का वही मन अकस्मात् एक नन्हें-से हरिणशिशु के पीछे अपने लक्ष्य से च्युत हो गया।

इस प्रकार मृग बने हुए राजर्षि भरत के हृदय में जो वैराग्य-भावना जाग्रत् हुई, उसे छिपाये रखकर उन्होंने अपनी माता मृगी को त्याग दिया और अपनी जन्मभूमि कालंजर पर्वत से वे फिर शान्त स्वभाव मुनियों के प्रिय उसी शालग्राम तीर्थ में, जो भगवान् का क्षेत्र है, पुलस्त्य और पुलह ऋषि के आश्रम पर चले आये। वहाँ रहकर भी वे काल की ही प्रतीक्षा करने लगे। आसक्ति से उन्हें बड़ा भय लगने लगा था। बस, अकेले रहकर वे सूखे पत्ते, घास और झाड़ियों द्वारा निर्वाह करते मृगयोनि की प्राप्ति कराने वाला प्रारब्ध के क्षय की बाट देखते रहे। अन्त में उन्होंने अपने शरीर का आधा भाग गण्डकी के जल में डुबाये रखकर उस मृग शरीर को छोड़ दिया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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