श्रीमद्भागवत महापुराण पंचम स्कन्ध अध्याय 8 श्लोक 15-25

पंचम स्कन्ध: अष्टम अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: अष्टम अध्यायः श्लोक 15-25 का हिन्दी अनुवाद


कभी यदि वह दिखायी न देता तो जिसका धन लुट गया हो, उस दीन मनुष्य के समान उनका चित्त अत्यन्त उद्विग्न हो जाता और फिर वे उस हरिनी के बच्चे के विरह से व्याकुल एवं सन्तप्त हो करुणावश अत्यन्त उत्कण्ठित एवं मोहविष्ट हो जाते तथा शोकमग्न होकर इस प्रकार कहने लगते- ‘अहो! क्या कहा जाये? क्या वह मातृहीन दीन मृगशावक दुष्ट बहेलिये की-सी बुद्धि वाले मुझ पुण्यहीन अनार्य का विश्वास करके और मुझे अपना मानकर मेरे किये हुए अपराधों को सत्पुरुषों के समान भूलकर फिर लौट आयेगा? क्या मैं उसे फिर इस आश्रम के उपवन में भगवान् की कृपा से सुरक्षित रहकर निर्विघ्न हरी-हरी दूब चरते देखूँगा? ऐसा न हो कि कोई भेड़िया, कुत्ता गोल बाँधकर विचरने वाले सूकरादि अथवा अकेले घूमने वाले व्याघ्रादि ही उसे खा जायें।

अरे! सम्पूर्ण जगत् की कुशल के लिये प्रकट होने वाले वेदत्रयीरूप भगवान् सूर्य अस्त होना चाहते हैं; किन्तु अभी तक वह मृगी की धरोहर लौटकर नहीं आयी। क्या वह हरिण राजकुमार मुझ पुण्यहीन के पास आकर अपनी भाँति-भाँति की मृगशावकोचित मनोहर एवं दर्शनीय क्रीड़ाओं से अपने स्वजनों का शोक दूर करते हुए मुझे आनन्दित करेगा? अहो! जब कभी मैं प्रणयकोप से खेल में झूठ-मूठ समाधि के बहाने आँखें मूँदकर बैठ जाता, तब वह चकित चित्त से मेरे पास आकर जलबिन्दु के समान कोमल और नन्हें-नन्हें सींगों की नोक से किस प्रकार मेरे अंगों को खुजलाने लगता था। मैं कभी कुशों पर हवन सामग्री रख देता और वह उन्हें दाँतों से खींचकर अपवित्र कर देता तो मेरे डाँटने-डपटने पर वह अत्यन्त भयभीत होकर उसी समय सारी उछल-कूद छोड़ देता और ऋषिकुमार के समान अपनी समस्त इन्द्रियों को रोककर चुपचाप बैठ जाता था’।

[फिर पृथ्वी पर उस मृगशावक के खुर के चिह्न देखकर कहने लगते-] ‘अहो! इस तपस्विनी धरती ने ऐसा कौन-सा तप किया है जो उस अतिविनीत कृष्णसार किशोर के छोटे-छोटे सुन्दर, सुखकारी और सुकोमल खुरों वाले चरणों के चिह्नों से मुझे, जो मैं अपना मृगधन लुट जाने से अत्यन्त व्याकुल और दीन हो रहा हूँ, उस द्रव्य की प्राप्ति का मार्ग दिखा रही है और स्वयं अपने शरीर को भी सर्वत्र उन पदचिह्नों से विभूषित कर स्वर्ग और अपवर्ग के इच्छुक द्विजों के लिये यज्ञस्थल[1] बना रही है। (चन्द्रमा में मृग का-सा श्याम चिह्न देख उसे अपना ही मृग मानकर कहने लगते-) ‘अहो! जिसकी माता सिंह के भय से मर गयी थी, आज वही मृगशिशु अपने आश्रम से बिछुड़ गया है। अतः उसे अनाथ देखकर क्या ये दीनवत्सल भगवान् नक्षत्रनाथ दयावश उसकी रक्षा कर रहे हैं? [फिर उसकी शीतल किरणों से आह्लादित होकर कहने लगते-] ‘अथवा अपने पुत्रों के वियोगरूप दावानलरूप विषम ज्वाला से हृदयकमल दग्ध हो जाने के कारण मैंने एक मृग बालक का सहारा लिया था। अब उसके चले जाने से फिर मेरा हृदय जलने लगा है; इसलिये ये अपनी शीतल, शान्त, स्नेहपूर्ण और वदनसलिलरूपा अमृतमयी किरणों से मुझे शान्त कर रहे हैं’।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. शास्त्रों में उल्लेख आता है कि जिस भूमि में कृष्णमृग विचरते हैं, वह अत्यन्त पवित्र और यज्ञानुष्ठान के योग्य होती है।

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