पंचम स्कन्ध: पंचम अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: पंचम अध्यायः श्लोक 20-28 का हिन्दी अनुवाद
[सभा में उपस्थित ब्राह्मणों को लक्ष्य करके] विप्रगण! दूसरे किसी भी प्राणी को मैं ब्राह्मणों के समान भी नहीं समझता, फिर उनसे अधिक तो मान ही कैसे सकता हूँ। लोग श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणों के मुख में जो अन्नादि आहुति डालते हैं, उसे मैं जैसी प्रसन्नता से ग्रहण करता हूँ, वैसे अग्निहोत्र में होम की हुई सामग्री को स्वीकार नहीं करता। जिन्होंने इस लोक में अध्ययनादि के द्वारा मेरी वेदरूपा अति सुन्दर और पुरातन मूर्ति को धारण कर रखा है तथा जो परम पवित्र सत्त्वगुण, शम, दम, सत्य, दया, तप, तितिक्षा और ज्ञानादि आठ गुणों से सम्पन्न है। मैं ब्रह्मादि से भी श्रेष्ठ और अनन्त हूँ तथा स्वर्ग-मोक्ष आदि देने की भी सामर्थ्य रखता हूँ; किन्तु अकिंचन भक्त ऐसे निःस्पृह होते हैं कि वे मुझसे भी कभी कुछ नहीं चाहते; फिर राज्यादि अन्य वस्तुओं की तो वे इच्छा ही कैसे कर सकते हैं? पुत्रों! तुम सम्पूर्ण चराचर भूतों को मेरा ही शरीर समझकर शुद्ध बुद्धि से पद-पद पर उनकी सेवा करो, यही मेरी सच्ची पूजा है। मन, वचन, दृष्टि तथा अन्य इन्द्रियों की चेष्टाओं का साक्षात् फल मेरा इस प्रकार का पूजन ही है। इसके बिना मनुष्य अपने को महामोहमय कालपाश से छुड़ा नहीं सकता। श्रीशुकदेव जी कहते हैं- राजन्! ऋषभदेव जी के पुत्र यद्यपि स्वयं ही सब प्रकार से सुशिक्षित थे, तो भी लोगों को शिक्षा देने के उद्देश्य से महाप्रभावशाली परम सुहृद् भगवान् ऋषभ ने उन्हें इस प्रकार उपदेश दिया। ऋषभदेव जी के सौ पुत्रों में भरत सबसे बड़े थे। वे भगवान् के परम भक्त और भगवद्भक्तों के परायण थे। ऋषभदेव जी ने पृथ्वी का पालन करने के लिये उन्हें राजगद्दी पर बैठा दिया और स्वयं उपशमशील निवृत्तिपरायण महामुनियों के भक्त, ज्ञान और वैराग्यरूप परमहंसोचित्त धर्मों की शिक्षा देने के लिये बिलकुल विरक्त हो गये। केवल शरीर मात्र का परिग्रह रखा और सब कुछ घर पर रहते ही छोड़ दिया। अब वे वस्त्रों का भी त्याग करके सर्वथा दिगम्बर हो गये। उस समय उनके बाल बिखरे हुए थे। उन्मत्त का-सा वेष था। इस स्थिति में वे आह्वनीय (अग्निहोत्र की) अग्नियों को अपने में ही लीन करके संन्यासी हो गये और ब्रह्मावर्त देश से बाहर निकल गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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