श्रीमद्भागवत महापुराण पंचम स्कन्ध अध्याय 3 श्लोक 10-20

पंचम स्कन्ध: तृतीय अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: तृतीय अध्यायः श्लोक 10-20 का हिन्दी अनुवाद


पूज्यतम! हमें सबसे बड़ा वर तो आपने यही दे दिया कि ब्रह्मादि समस्त वरदायकों में श्रेष्ठ होकर भी आप राजर्षि नाभि की इस यज्ञशाला में साक्षात् हमारे नेत्रों के सामने प्रकट हो गये! अब हम और वर क्या माँगे?

प्रभो! आपके गुणगणों का गान परममंगलमय है। जिन्होंने वैराग्य से प्रज्वलित हुई ज्ञानाग्नि के द्वारा अपने अन्तःकरण के रागद्वेषादि सम्पूर्ण मलों को जला डाला है, अतएव जिनका स्वभाव आपके ही समान शान्त है, वे आत्माराम मुनिगण भी निरन्तर आपके गुणों का गान ही किया करते हैं। अतः हम आपसे यही वर माँगते हैं कि गिरने, ठोकर खाने, छींकने अथवा जँभाई लेने और संकटादि के समय एवं ज्वर और मरणादि की अवस्थाओं में आपका स्मरण न हो सकने पर भी किसी प्रकार आपके सकलकलिमल-विनाशक ‘भक्तवत्सल’, ‘दीनबन्धु’ आदि गुणद्योतक नामों का हम उच्चारण कर सकें।

इसके सिवा, कहने योग्य न होने पर भी एक प्रार्थना और है। आप साक्षात् परमेश्वर हैं; स्वर्ग-अपवर्ग आदि ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जिसे आप न दे सकें। तथापि जैसे कोई कंगाल किसी धन लुटाने वाले परमउदार पुरुष के पास पहुँचकर भी उससे भूसा ही माँगे, उसी प्रकार हमारे यजमान ये राजर्षि नाभि सन्तान को ही परमपुरुषार्थ मानकर आपके ही समान पुत्र पाने के लिये आपकी आराधना कर रहे हैं। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। आपकी माया का पार कोई नहीं पा सकता और न वह किसी के वश में ही आ सकती है। जिन लोगों ने महापुरुषों के चरणों का आश्रय नहीं लिया, उनमें ऐसा कौन है जो उसके वश में नहीं होता, उसकी बुद्धि पर उसका परदा नहीं पड़ जाता और विषयरूप विष का वेग उसके स्वभाव को दूषित नहीं कर देता?

देवदेव! आप भक्तों के बड़े-बड़े काम कर देते हैं। हम मन्दमतियों ने कामनावश इस तुच्छ कार्य के लिये आपका आवाहन किया, यह आपका अनादर ही है। किन्तु आप समदर्शी हैं, अतः हम अज्ञानियों की इस धृष्टता को आप क्षमा करें।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- राजन्! वर्षाधिपति नाभि के पूज्य ऋत्विजों ने प्रभु के चरणों की वन्दना करके जब पूर्वोक्त स्तोत्र से स्तुति की, तब देव श्रेष्ठ श्रीहरि ने करुणावश इस प्रकार कहा।

श्रीभगवान् ने कहा- ऋषियों! बड़े असमंजस की बात है। आप सब सत्यवादी महात्मा हैं, आपने मुझसे यह बड़ा दुर्लभ वर माँगा है कि राजर्षि नाभि के मेरे समान पुत्र हो। मुनियों! मेरे समान तो मैं ही हूँ, क्योंकि मैं अद्वितीय हूँ। तो भी ब्राह्मणों का वचन मिथ्या नहीं होना चाहिये, द्विजकुल मेरा ही तो मुख है। इसलिये मैं स्वयं ही अपनी अंशकला से आग्नीध्रनन्दन नाभि के यहाँ अवतार लूँगा, क्योंकि अपने समान मुझे कोई और दिखायी नहीं देता।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- महारानी मेरुदेवी के सुनते हुए उसके पति से इस प्रकार कहकर भगवान् अन्तर्धान हो गये।

विष्णुदत्त परीक्षित! उस यज्ञ में महर्षियों द्वारा इस प्रकार प्रसन्न किये जाने पर श्रीभगवान् महाराज नाभि का प्रिय करने के लिये उनके रनिवास में महारानी मेरुदेवी के गर्भ से दिगम्बर संन्यासी और ऊर्ध्वरेता मुनियों का धर्म प्रकट करने के लिये शुद्धसत्त्वमय विग्रह से प्रकट हुए।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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