श्रीमद्भागवत महापुराण पंचम स्कन्ध अध्याय 2 श्लोक 10-19

पंचम स्कन्ध: द्वितीय अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 10-19 का हिन्दी अनुवाद


[नूपुरों के शब्द की ओर संकेत करके-] ब्रह्मन्! तुम्हारे चरणरूप पिंजड़ों में तो तीतर बन्द हैं, उनका शब्द तो सुनायी देता है; परन्तु रूप देखने में नहीं आता।

[करधनी सहित पीली साड़ी में अंग की कान्ति की उत्प्रेक्षा कर-] तुम्हारे नितम्बों पर यह कदम्ब-कुसुमों की-सी आभा कहाँ से आ गयी? इनके ऊपर तो अंगारों का मण्डल-सा भी दिखायी देता है। किन्तु तुम्हारा वल्कल-वस्त्र कहाँ है?

[कुकुममण्डित कुचों की ओर लक्ष्य करके-] द्विजवर! तुम्हारे इन दोनों सुन्दर सींगों में क्या भरा हुआ है? अवश्य ही इनमें बड़े अमूल्य रत्न भरे हैं, इसी से तो तुम्हारा मध्य भाग इतना कृश होने पर भी तुम इनका बोझ ढो रहे हो। यहाँ जाकर मेरी दृष्टि भी मानो अटक गयी है। और सुभग! इन सींगों पर तुमने यह लाल-लाल लेप-सा क्या लगा रखा है? इसकी गन्ध से तो मेरा सारा आश्रम महक उठा है।

मित्रवर! मुझे तो तुम अपना देश दिखा दो, जहाँ के निवासी अपने वक्षःस्थल पर ऐसे अद्भुत अवयव धारण करते हैं, जिन्होंने हमारे-जैसे प्राणियों के चिट्टों को क्षुब्ध कर दिया है तथा मुख में विचित्र हाव-भाव, सरसभाषण और अधरामृत-जैसी अनूठी वस्तुएँ रखते हैं।

‘प्रियवर! तुम्हारा भोजन क्या है, जिसके खाने से तुम्हारे मुख से हवन सामग्री की-सी सुगन्ध फैल रही है? मालूम होता है, तुम कोई विष्णु भगवान् की कला ही हो; इसीलिये तुम्हारे कानों में कभी पलक न मारने वाले मकर के आकर के दो कुण्डल हैं। तुम्हारा मुख एक सुन्दर सरोवर के समान है। उसमें तुम्हारे चंचल नेत्र भय से काँपती हुई दो मछलियों के समान, दन्तपंक्ति हंसों के समान और घुँघराली अलकावली भौरों के समान शोभायमान है। तुम सब अपने करकमलों से थपकी मारकर इस गेंद को उछालते हो, तब यह दिशा-विदिशाओं में जाती हुई मेरे नेत्रों को तो चंचल कर ही देती है, साथ-साथ मेरे मन में भी खलबली पैदा कर देती है। तुम्हारा बाँका जटाजूट खुल गया है, तुम इसे सँभालते क्यों नहीं? अरे, यह धूर्त वायु कैसा दुष्ट है जो बार-बार तुम्हारे नीवी-वस्त्र को उड़ा देता है।

तपोधन! तपस्वियों के तप को भ्रष्ट करने वाला यह अनूपरूप तुमने किस तप के प्रभाव से पाया है? मित्र! आओ, कुछ दिन मेरे साथ रहकर तपस्या करो। अथवा, कहीं विश्वविस्तार की इच्छा से ब्रह्मा जी ने ही तो मुझ पर कृपा नहीं की है। सचमुच, तुम ब्रह्मा जी की ही प्यारी देन हो; अब मैं तुम्हें नहीं छोड़ सकता। तुम में तो मेरे मन और नयन ऐसे उलझ गये हैं कि अन्यत्र जाना ही नहीं चाहते। सुन्दर सींगों वाली! तुम्हारा जहाँ मन हो, मुझे भी वहीं ले चलो; मैं तुम्हारा अनुचर हूँ और तुम्हारी ये मंगलमयी सखियाँ भी हमारे ही साथ रहें’।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- राजन्! आग्नीध्र देवताओं के समान बुद्धिमान् और स्त्रियों को प्रसन्न करने में बड़े कुशल थे। उन्होंने इसी प्रकार की रतिचातुर्यमयी मीठी-मीठी बातों से उस अप्सरा को प्रसन्न कर लिया। वीर-समान में अग्रगण्य आग्नीध्र की बुद्धि, शील, रूप, अवस्था, लक्ष्मी और उदारता से आकर्षित होकर वह उन जम्बूद्वीपाधिपति के साथ कई हर्जर वर्षों तक पृथ्वी और स्वर्ग के भोग भोगती रही। तदनन्तर नृपवर आग्नीध्र ने उसके गर्भ से नाभि, किम्पुरुष, हरिवर्ष, इलावृत, रम्यक, हिरण्मय, कुरु, भद्राश्व और केतुमाल नाम के नौ पुत्र उत्पन्न किये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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