श्रीमद्भागवत महापुराण पंचम स्कन्ध अध्याय 17 श्लोक 11-19

पंचम स्कन्ध: सप्तदश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: सप्तदश अध्यायः श्लोक 11-19 का हिन्दी अनुवाद


इन सब वर्षों में भारतवर्ष ही कर्मभूमि है। शेष आठ वर्ष तो स्वर्गवासी पुरुषों के स्वर्गभोग से बचे हुए पुण्यों को भोगने के स्थान हैं। इसलिये इन्हें भूलोक के स्वर्ग भी कहते हैं। वहाँ के देवतुल्य मनुष्यों की मानवी गणना के अनुसार दस हजार वर्ष की आयु होती है। उनमें दस हजार हाथियों का बल होता है तथा उनके वज्रसदृश सुदृढ़ शरीर में जो शक्ति, यौवन और उल्लास होते हैं-उनके कारण वे बहुत समय तक मैथुन आदि विषय भोगते रहते हैं। अन्त में जब भोग समाप्त होने पर उनकी आयु का केवल एक वर्ष रह जाता है, तब उनकी स्त्रियाँ गर्भ धारण करती हैं। इस प्रकार वहाँ सर्वदा त्रेतायुग के समान समय बना रहता है। वहाँ ऐसे आश्रम, भवन और वर्ष, पर्वतों की घाटियाँ हैं, जिनके सुन्दर वन-उपवन सभी ऋतुओं के फूलों के गुच्छे, फल और नूतन पल्लवों की शोभा के भार से झुकी हुई डालियों और लताओं वाले वृक्षों से सुशोभित हैं; वहाँ निर्मल जल से भरे हुए ऐसे जलाशय भी हैं; जिनमें तरह-तरह के नूतन कमल खिले रहते हैं और उन कमलों की सुगन्ध से प्रमुदित होकर राजहंस, जलमुर्ग, कारण्डव, सारस और चकवा आदि पक्षी, मतवाले भौंरे मधुर-मधुर गुंजार करते रहते हैं।

इन आश्रमों, भवनों, घाटियों तथा जलाशयों में वहाँ के देवेश्वरगण परम सुन्दरी देवांगनाओं के साथ उनके कामोन्माद सूचक हास-विलास और लीला-कटाक्षों से मन और नेत्रों के आकृष्ट हो जाने के कारण जलक्रीड़ादि नाना प्रकार के खेल करते हुए स्वच्छन्द विहार करते हैं तथा उनके प्रधान-प्रधान अनुचरगण अनेक प्रकार की सामग्रियों से उनका आदर-सत्कार करते रहते हैं। इन नवों वर्षों में परमपुरुष भगवान् नारायण वहाँ के पुरुषों पर अनुग्रह करने के लिये इस समय भी अपनी विभिन्न मूर्तियों से विराजमान रहते हैं।

इलावृत वर्ष में एकमात्र भगवान् शंकर ही पुरुष हैं। श्रीपार्वती जी के शाप को जानने वाला कोई दूसरा पुरुष वहाँ प्रवेश नहीं करता; क्योंकि वहाँ जो जाता है, वही स्त्रीरूप हो जाता है। इस प्रसंग का हम आगे (नवम स्कन्ध में) वर्णन करेंगे। वहाँ पार्वती एवं उनकी अरबों-खरबों दासियों से सेवित भगवान् शंकर परमपुरुष परमात्मा की वासुदेव, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध और संकर्षण संयज्ञ चतुर्व्यूह-मूर्तियों में से अपनी कारणरूपा संकर्षण नाम की तमःप्रधान चौथी मूर्ति का ध्यानस्थित मनोमय विग्रह के रूप में चिन्तन करते हैं और इस मन्त्र का उच्चारण करते हुए इस प्रकार स्तुति करते हैं।[1]

भगवान् शंकर कहते हैं- ‘ॐ जिनसे सभी गुणों की अभिव्यक्ति होती है, उन अनन्त और अव्यक्तमूर्ति ओंकारस्वरूप परमपुरुष श्रीभगवान् को नमस्कार है।’ ‘भजनीय प्रभो! आपके चरणकमल भक्तों को आश्रय देने वाले हैं तथा आप स्वयं सम्पूर्ण ऐश्वर्यों के परम आश्रय हैं। भक्तों के सामने आप अपना भूतभावनस्वरूप पूर्णतया प्रकट कर देते हैं तथा उन्हें संसारबन्धन से भी मुक्त कर देते हैं, किन्तु अभक्तों को उस बन्धन में डालते रहते हैं। आप ही सर्वेश्वर हैं, मैं आपका भजन करता हूँ।

प्रभो! हम लोग क्रोध के आवेग को नहीं जीत सके हैं तथा हमारी दृष्टि तत्काल पाप से लिप्त हो जाती है। परन्तु आप तो संसार का नियमन करने के लिये निरन्तर साक्षीरूप से उसके सारे व्यापारों को देखते रहते हैं। तथापि हमारी तरह आपकी दृष्टि पर उन मायिक विषयों तथा चित्त की वृत्तियों का नाममात्र को भी प्रभाव नहीं पड़ता। ऐसी स्थिति में अपने मन को वश में करने की इच्छा वाला कौन पुरुष आपका आदर न करेगा?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भगवान् का विग्रह शुद्ध चिन्मय ही है, परन्तु संहार आदि तामसी कार्यों हेतु होने से इसे तामसी मूर्ति कहते हैं।

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