श्रीमद्भागवत महापुराण पंचम स्कन्ध अध्याय 16 श्लोक 12-25

पंचम स्कन्ध: षोडश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: षोडश अध्यायः श्लोक 12-25 का हिन्दी अनुवाद


इन चारों के ऊपर इनकी ध्वजाओं के समान क्रमशः आम, जामुन, कदम्ब और बड़ के चार पेड़ हैं। इनमें से प्रत्येक ग्यारह सौ योजन ऊँचा है और इतना ही इनकी शाखाओं का विस्तार है। इनकी मोटाई सौ-सौ योजन है।

भरतश्रेष्ठ! इन पर्वतों पर चार सरोवर भी हैं-जो क्रमशः दूध, मधु, ईख के रस और मीठे जल से भरे हुए हैं। इनका सेवन करने वाले यक्ष-किन्नरादि उपदेवों को स्वभाव से ही योगसिद्धियाँ प्राप्त हैं। इन पर क्रमशः नन्दन, चैत्ररथ, वैभ्राजक और सर्वतोभद्र नाम के चार दिव्य उपवन भी हैं। इनमें प्रधान-प्रधान देवगण अनेकों सुरसुन्दरियों के नायक बनकर साथ-साथ विहार करते हैं। उस समय गन्धर्वादि उपदेवगण इनकी महिमा का बखान किया करते हैं। मन्दराचल की गोद में जो ग्यारह सौ योजन ऊँचा देवताओं का आम्रवृक्ष है, उससे गिरी शिखर के समान बड़े-बड़े और अमृत के समान स्वादिष्ट फल गिरते हैं। वे जब फटते हैं, तब उनसे बड़ा सुगन्धित और मीठा लाल-लाल रस बहने लगता है। वही अरुणोदा नाम की नदी में परिणत हो जाता है। यह नदी मन्दराचल के शिखर से गिरकर अपने जल से इलावृत वर्ष के पूर्वी-भाग को सींचती है।

श्रीपार्वती जी की अनुचरी यक्षपत्नियाँ इस जल का सेवन करती हैं। इससे उनके अंगों से ऐसी सुगन्ध निकलती है कि उन्हें सपर्श करके बहने वाली वायु उनके चारों ओर दस-दस योजन तक सारे देश को सुगन्ध से भर देती है। इसी प्रकार जामुन के वृक्ष से हाथी के समान बड़े-बड़े प्रायः बिना गुठली के फल गिरते हैं। बहुत ऊँचे से गिरने के कारण वे फट जाते हैं। उनके रस से जम्बू नाम की नदी प्रकट होती है, जो मरुमन्दर पर्वत के दस हजार योजन ऊँचे शिखर से गिरकर इलावृत के दक्षिण भू-भाग को सींचती है। उस नदी के दोनों किनारों की मिट्टी उस रस से भीगकर जब वायु और सूर्य से संयोग से सूख जाती है, तव वही देवलोक को विभूषित करने वाला जाम्बूनद नाम का सोना बन जाती है। इसे देवता और गन्धर्वादि अपनी तरुणी स्त्रियों के सहित मुकुट, कंकण और करधनी आदि आभूषणों के रूप में धारण करते हैं।

सुपार्श्व पर्वत पर जो विशाल कदम्ब वृक्ष है, उसके पाँच कोटरों से मधु की पाँच धाराएँ निकलती हैं; उनकी मोटाई पाँच पुर से जितनी है। ये सुपार्श्व के शिखर से गिरकर इलावृत वर्ष के पश्चिमी भाग को अपनी सुगन्ध से सुवासित करती हैं। जो लोग इनका मधुपान करते हैं, उनके मुख से निकली हुई वायु अपने चारों ओर सौ-सौ योजन इसकी महक फैला देती है। इसी प्रकार कुमुद पर्वत पर जो शतवल्श नाम का वट वृक्ष है, उसकी जटाओं से नीचे की ओर बहने वाले अनेक नद निकलते हैं, वे सब इच्छानुसार भोग देने वाले हैं। उनसे दूध, दही, मधु, घृत, गुड़, अन्न, वस्त्र, शय्या, आसन और आभूषण आदि सभी पदार्थ मिल सकते हैं। ये सब कुमुद के शिखर से गिरकर इलावृत के उत्तरी भाग को सींचते हैं। इनके दिये हुए पदार्थों का उपभोग करने से वहाँ की प्रजा की त्वचा में झुर्रियाँ पड़ जाना, बाल पक जाना, थकान होना, शरीर में पसीना आना तथा दुर्गन्ध निकलना, बुढ़ापा, रोग, मृत्यु, सर्दी-गरमी की पीड़ा, शरीर का कान्तिहीन हो जाना तथा अंगों का टूटना आदि कष्ट कभी नहीं सताते और उन्हें जीवन पर्यन्त पूरा-पूरा सुख प्राप्त होता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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