श्रीमद्भागवत महापुराण पंचम स्कन्ध अध्याय 11 श्लोक 12-17

पंचम स्कन्ध: एकादश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: एकादश अध्यायः श्लोक 12-17 का हिन्दी अनुवाद


ऐसा होने पर भी मन से क्षेत्रज्ञ का कोई सम्बन्ध नहीं है। यह तो जीव की ही माया निर्मित उपाधि है। यह प्रायः संसार बन्धन में डालने वाले अविशुद्ध कर्मों में ही प्रवृत्त रहता है। इसकी उपर्युक्त वृत्तियाँ प्रवाह रूप से नित्य ही रहती हैं; जाग्रत् और स्वप्न के समय वे प्रकट हो जाती हैं और सुषुप्ति में छिप जाती हैं। इन दोनों ही अवस्थाओं में क्षेत्रज्ञ, जो विशुद्ध चिन्मात्र है, मन की इन वृत्तियों को साक्षी रूप से देखता रहता है।

यह क्षेत्रज्ञ परमात्मा सर्वव्यापक, जगत् का आदिकारण, परिपूर्ण, अपरोक्ष, स्वयं प्रकाश, अजन्मा, ब्रह्मादि का भी नियन्ता और अपने अधीन रहने वाले माया के द्वारा सबके अन्तःकरणों में रहकर जीवों को प्रेरित करने वाला समस्त भूतों का आश्रयरूप भगवान् वासुदेव हैं। जिस प्रकार वायु सम्पूर्ण स्थावर-जंगम प्राणियों में प्राणरूप से प्रविष्ट होकर उन्हें प्रेरित करती है, उसी प्रकार वह परमेश्वर भगवान् वासुदेव सर्वसाक्षी आत्मस्वरूप से इस सम्पूर्ण प्रपंच में ओत-प्रोत है।

राजन्! जब तक मनुष्य ज्ञानोदय के द्वारा इस माया का तिरस्कार कर, सबकी आसक्ति छोड़कर तथा काम-क्रोधादि छः शत्रुओं को जीतकर आत्मतत्त्व को नहीं जान लेता और जब तक वह आत्मा के उपाधिरूप मन को संसार-दुःख का क्षेत्र नहीं समझता, तब तक वह इस लोक में यों ही भटकता रहता है, क्योंकि चित्त उसके शोक, मोह, रोग, लोभ और वैर आदि के संस्कार तथा ममता की वृद्धि करता रहता है। यह मन ही तुम्हारा बड़ा बलवान् शत्रु है। तुम्हारी उपेक्षा करने से इसकी शक्ति और भी बढ़ गयी है। यह यद्यपि स्वयं तो सर्वथा मिथ्या है, तथापि इसने तुम्हारे आत्मस्वरूप को आच्छादित कर रखा है। इसलिये तुम सावधान होकर श्रीगुरु और हरि के चरणों की उपासना के अस्त्र से इसे मार डालो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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