श्रीमद्भागवत महापुराण पंचम स्कन्ध अध्याय 10 श्लोक 16-25

पंचम स्कन्ध: दशम अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: दशम अध्यायः श्लोक 16-25 का हिन्दी अनुवाद


देव! आपने द्विजों का चिह्न यज्ञोपवीत धारण कर रखा है, बतलाइये इस प्रकार प्रच्छन्न भाव से विचरने वाले आप कौन हैं? क्या आप दत्तात्रेय आदि अवधूतों में से कोई हैं? आप किसके पुत्र हैं, आपका कहाँ जन्म हुआ है और यहाँ कैसे आपका पदार्पण हुआ है? यदि आप हमारा कल्याण करने पधारे हैं, तो क्या आप साक्षात् सत्त्वमूर्ति भगवान् कपिल जी ही तो नहीं हैं?

मुझे इन्द्र के वज्र का कोई डर नहीं है, न मैं महादेव जी के त्रिशूल से डरता हूँ और न यमराज के दण्ड से। मुझे अग्नि, सूर्य, चन्द्र, वायु और कुबेर के अस्त्र-शस्त्रों का भी कोई भय नहीं है; परन्तु मैं ब्राह्मण कुल के अपमान से बहुत ही डरता हूँ। अतः कृपया बतलाइये, इस प्रकार अपने विज्ञान और शक्ति को छिपाकर मूर्खों की भाँति विचरने वाले आप कौन हैं? विषयों से तो आप सर्वथा अनासक्त जान पड़ते हैं। मुझे आपकी कोई थाह नहीं मिल रही है।

साधो! आपके योगमुक्त वाक्यों की बुद्धि द्वारा आलोचना करने पर भी मेरा सन्देह दूर नहीं होता। मैं आत्मज्ञानी मुनियों के परमगुरु और साक्षात् श्रीहरि की ज्ञानशक्ति के अवतार योगेश्वर भगवान् कपिल से यह पूछने के लिये जा रहा था कि इस लोक में एकमात्र शरण लेने योग्य कौन है। क्या आप वे कपिल मुनि ही हैं, जो लोकों की दशा देखने के लिये इस प्रकार अपना रूप छिपाकर विचर रहे हैं? भला, घर में आसक्त रहने वाला विवेकहीन पुरुष योगेश्वरों की गति कैसे जान सकता है?

मैंने यद्धादि कर्मों में अपने को श्रम होते देखा है, इसलिये मेरा अनुमान है कि बोझा ढोने और मार्ग में चलने से आपको भी अवश्य ही होता होगा। (देहादि के धर्मों का आत्मा पर कोई प्रभाव ही नहीं होता, ऐसी बात भी नहीं है) चूल्हे पर रखी हुई बटलोई जब अग्नि से तपने लगती है, तब उसका जल भी खौलने लगता है और फिर उस जल से चावल का भीतरी भाग भी पक जाता है। इसी प्रकार अपनी उपाधि के धर्मों का अनुवर्तन करने के कारण देह, इन्द्रिय, प्राण और मन की सन्निधि से आत्मा को भी उनके धर्म श्रमादि का अनुभव होता ही है। आपने जो दण्डादि की व्यर्थता बतायी, सो राजा तो प्रजा का शासन और पालन करने के लिये नियुक्त किया हुआ उसका दास ही है। उसका उन्मत्तादि को दण्ड देना पिसे हुए को पीसने के समान व्यर्थ नहीं हो सकता; क्योंकि अपने धर्म का आचरण करना भगवान् की सेवा ही है, उसे करने वाला व्यक्ति अपनी सम्पूर्ण पापराशि को नष्ट कर देता है।

‘दीनबन्धो! राजत्व के अभिमान से उन्मत्त होकर मैंने आप-जैसे परम साधु की अवज्ञा की है। अब आप ऐसी कृपा दृष्टि कीजिये, जिससे इस साधु-अवज्ञारूप अपराध से मैं मुक्त हो जाऊँ। आप देहाभिमानशून्य और विश्व बन्धु श्रीहरि के अनन्य भक्त हैं; इसलिये सब में समान दृष्टि होने से इस मानापमान के कारण आपमें कोई विकार नहीं हो सकता तथापि एक महापुरुष का अपमान करने के कारण मेरे-जैसा पुरुष साक्षात् त्रिशूलपाणि महादेव जी के समान प्रभावशाली होने पर भी, अपने अपराध से अवश्य थोड़े ही काल में नष्ट हो जायेगा’।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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