श्रीमद्भागवत महापुराण नवम स्कन्ध अध्याय 19 श्लोक 16-29

नवम स्कन्ध: अथैकोनविंशोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: एकोनविंश अध्यायः श्लोक 16-29 का हिन्दी अनुवाद


विषयों की तृष्णा ही दुःखों का उद्गम स्थान है। मन्द बुद्धि लोग बड़ी कठिनाई से उसका त्याग कर सकते हैं। शरीर बूढ़ा हो जाता है, पर तृष्णा नित्य नवीन ही होती जाती है। अतः जो अपना कल्याण चाहता है, उसे शीघ्र-से-शीघ्र इस तृष्णा (भोग-वासना) का त्याग कर देना चाहिये। और तो क्या-अपनी मां, बहिन और कन्या के साथ भी अकेले एक आसन पर सटकर नहीं बैठना चाहिये। इन्द्रियाँ इतनी बलवान् हैं कि वे बड़े-बड़े विद्वानों को भी विचलित कर देती हैं।

विषयों का बार-बार सेवन करते-करते एक हजार वर्ष पूरे हो गये, फिर भी क्षण-प्रति-क्षण उन भोगों की लालसा बढ़ती ही जा रही है। इसलिये मैं अब भोगों की वासना-तृष्णा का परित्याग करके अपना अन्तःकरण परमात्मा के प्रति समर्पित कर दूँगा और शीत-उष्ण, सुख-दुःख आदि के भावों से ऊपर उठकर अहंकार से मुक्त हो हरिनों के साथ वन में विचरूँगा। लोक-परलोक दोनों के ही भोग असत् हैं, ऐसा समझकर न तो उनका चिन्तन करना चाहिये और न भोग ही। समझना चाहिये कि उनके चिन्तन से ही जन्म-मृत्युरूप संसार की प्रप्ति होती है और उनके भोग से तो आत्मनाश ही हो जाता है। वास्तव में इनके रहस्य को जानकर इनसे अलग रहने वाला ही आत्मज्ञानी है’।

परीक्षित! ययाति ने अपनी पत्नी से इस प्रकार कहकर पूरु की जवानी उसे लौटा दी और उससे अपना बुढ़ापा ले लिया। यह इसलिये कि अब उनके चित्त में विषयों की वासना नहीं रह गयी थी। इसके बाद उन्होंने दक्षिण-पूर्व दिशा में द्रुह्यु, दक्षिण में यदु, पश्चिम में तुवर्सु और उत्तर में अनु को राज्य दे दिया। सारे भूमण्डल की समस्त सम्पत्तियों के योग्यतम पात्र पूरु को अपने राज्य पर अभिषिक्त करके तथा बड़े भाइयों को उसके अधीन बनाकर वे वन में चले गये। यद्यपि राजा ययाति ने बहुत वर्षों तक इन्द्रियों से विषयों का सुख भोगा था-परन्तु जैसे पाँख निकल आने पर पक्षी अपना घोंसला छोड़ देता है, वैसे ही उन्होंने एक क्षण में ही सब कुछ छोड़ दिया। वन में जाकर राजा ययाति ने समस्त आसक्तियों से छुट्टी पा ली। आत्म-साक्षात्कार के द्वारा उनका त्रिगुणमय लिंग शरीर नष्ट हो गया। उन्होंने माया-मल से रहित परब्रह्म परमात्मा वासुदेव में मिलकर वह भागवती गति प्राप्त की, जो बड़े-बड़े भगवान के प्रेमी संतों को प्राप्त होती है।

जब देवयानी ने वह गाथा सुनी, तो उसने समझा कि ये मुझे निवृत्ति मार्ग के लिये प्रोत्साहित कर रहे हैं। क्योंकि स्त्री-पुरुष में परस्पर प्रेम के कारण विरह होने पर विकलता होती है, यह सोचकर ही इन्होंने यह बात हँसी-हँसी में कही है। स्वजन-सम्बन्धियों का-जो ईश्वर के अधीन है-एक स्थान पर इकठ्ठा हो जाना वैसा ही है, जैसा प्याऊ पर पथिकों का। यह सब भगवान की माया का खेल और स्वप्न के सरीखा ही है। ऐसा समझकर देवयानी ने सब पदार्थों की आसक्ति त्याग दी और अपने मन को भगवान श्रीकृष्ण में तन्मय करके बन्धन के हेतु लिंग शरीर का परित्याग कर दिया-वह भगवान को प्राप्त हो गयी। उसने भगवान को नमस्कार करके कहा- ‘समस्त जगत् के रचयिता, सर्वान्तर्यामी, सबके आश्रयस्वरूप सर्वशक्तिमान् भगवान वासुदेव को नमस्कार है। जो परमशान्त और अनन्त तत्त्व हैं, उसे मैं नमस्कार करती हूँ’।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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