नवम स्कन्ध: अथाष्टादशोऽध्याय: अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: अष्टादश अध्यायः श्लोक 45-51 का हिन्दी अनुवाद
देवयानी उनकी प्रियतमा पत्नी थी। वह अपने प्रियतम ययाति को अपने मन, वाणी, शरीर और वस्तुओं के द्वारा दिन-दिन और भी प्रसन्न करने लगी और एकान्त में सुख देने लगी। राजा ययाति ने समस्त वेदों के प्रतिपाद्य सर्वदेवस्वरूप यज्ञपुरुष भगवान श्रीहरि का बहुत-से बड़ी-बड़ी दक्षिणा वाले यज्ञों से यजन किया। जैसे आकाश में दल-के-दल बादल दीखते हैं और कभी नहीं भी दीखते, वैसे ही परमात्मा के स्वरूप में यह जगत् स्वप्न, माया और मनोराज्य के समान कल्पित है। यह कभी अनेक नाम और रूपों के रूप में प्रतीत होता है और कभी नहीं भी। वे परमात्मा सबके हृदय में विराजमान हैं। उनका स्वरूप सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है। उन्हीं सर्वशक्तिमान् सर्वव्यापी भगवान् श्रीनारायण को अपने हृदय में स्थापित करके राजा ययाति ने निष्काम भाव से उनका यजन किया। इस प्रकार एक हजार वर्ष तक उन्होंने अपनी उच्छ्रंखल इन्द्रियों के साथ मन को जोड़कर उसके प्रिय विषयों को भोगा। परन्तु इतने पर भी चक्रवर्ती सम्राट् ययाति की भोगों की तृप्ति न हो सकी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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