श्रीमद्भागवत महापुराण नवम स्कन्ध अध्याय 16 श्लोक 15-30

नवम स्कन्ध: षोडशोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: षोडश अध्यायः श्लोक 15-30 का हिन्दी अनुवाद


परीक्षित! उस समय परशुराम जी को बड़ा दुःख हुआ। साथ ही क्रोध, असहिष्णुता, मानसिक पीड़ा और शोक के वेग से वे अत्यन्त मोहित हो गये। ‘हाय पिता जी! आप तो बड़े महात्मा थे। पिता जी! आप तो धर्म के सच्चे पुजारी थे। आप हम लोगों को छोड़कर स्वर्ग चले गये’। इस प्रकार विलाप कर उन्होंने पिता का शरीर तो भाइयों को सौंप दिया और स्वयं हाथ से फरसा उठाकर क्षत्रियों को संहार कर डालने का निश्चय किया।

परीक्षित! परशुराम जी ने माहिष्मती नगरी में जाकर सहस्रबाहु अर्जुन के पुत्रों के सिरों से नगर के बीचों-बीच एक बड़ा भारी पर्वत खड़ा कर दिया। उस नगर की शोभा तो उन ब्रह्मघाती नीच क्षत्रियों के कारण ही नष्ट हो चुकी थी। उनके रक्त से एक बड़ी भयंकर नदी बह निकली, जिसे देखकर ब्राह्मणद्रोहियों का हृदय भय से काँप उठता था। भगवान् ने देखा कि वर्तमान क्षत्रिय अत्याचारी हो गये हैं। इसलिये राजन! उन्होंने अपने पिता के वध को निमित्त बनाकर इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रियहीन कर दिया और कुरुक्षेत्र के समन्तपंचक में ऐसे-ऐसे पाँच तालाब बना दिये, जो रक्त के जल से भरे हुए थे। परशुराम जी ने अपने पिता जी का सिर लाकर उनके धड़ से जोड़ दिया और यज्ञों द्वारा सर्वदेवमय आत्मस्वरूप भगवान् का यजन किया। यज्ञों में उन्होंने पूर्व दिशा होता को, दक्षिण दिशा ब्रह्मा को, पश्चिम दिशा अध्वर्यु को और उत्तर दिशा सामगान करने वाले उद्गाता को दे दी।

इसी प्रकार अग्निकोण आदि विदिशाएँ ऋत्विजों को दीं, कश्यप जी को मध्यभूमि दी, उपद्रष्टा को आर्यावर्त दिया तथा दूसरे सदस्यों को अन्यान्य दिशाएँ प्रदान कर दीं। इसके बाद यज्ञान्त-स्नान करके वे समस्त पापों से मुक्त हो गये और ब्रह्मनदी सरस्वती के तट पर मेघरहित सूर्य के समान शोभायमान हुए। महर्षि जमदग्नि को स्मृतिरूप संकल्पमय शरीर की प्राप्ति हो गयी। परशुराम जी से सम्मानित होकर वे सप्तर्षियों के मण्डल में सातवें ऋषि हो गये।

परीक्षित! कमललोचन जमदग्निनन्दन भगवान् परशुराम आगामी मन्वन्तर में सप्तर्षियों के मण्डल में रहकर वेदों का विस्तार करेंगे। वे आज भी किसी को किसी प्रकार का दण्ड न देते हुए शान्त चित्त से महेन्द्र पर्वत पर निवास करते हैं। वहाँ सिद्ध, गन्धर्व और चारण उनके चरित्र का मधुर स्वर से गान करते रहते हैं। सर्वशक्तिमान् विश्वात्मा भगवान् श्रीहरि ने इस प्रकार भृगुवंशियों में अवतार ग्रहण करके पृथ्वी के भारभूत राजाओं का बहुत बार वध किया।

महाराज गाधि के पुत्र हुए प्रज्वलित अग्नि के समान परमतेजस्वी विश्वामित्र। उन्होंने अपने तपोबल से क्षत्रियत्व का भी त्याग करके ब्रह्मतेज प्राप्त कर लिया। परीक्षित! विश्वामित्र जी के सौ पुत्र थे। उनमें बिचले पुत्र का नाम था मधुच्छन्दा। इसलिये सभी पुत्र ‘मधुच्छन्दा’ के ही नाम से विख्यात हुए। विश्वामित्र जी ने भृगुवंशी अजीगर्त के पुत्र अपने भानजे शुनःशेप को, जिसका एक नाम देवरात भी था, पुत्ररूप में स्वीकार कर लिया और अपने पुत्रों से कहा कि ‘तुम लोग इसे अपना बड़ा भाई मानो’।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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