श्रीमद्भागवत महापुराण नवम स्कन्ध अध्याय 15 श्लोक 16-28

नवम स्कन्ध: पञ्चदशोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: पञ्चदश अध्यायः श्लोक 16-28 का हिन्दी अनुवाद


राजा परीक्षित ने पूछा- भगवन्! अवश्य ही उस समय के क्षत्रिय विषयलोलुप हो गये थे; परन्तु उन्होंने परशुराम जी का ऐसा कौन-सा अपराध कर दिया, जिसके कारण उन्होंने बार-बार क्षत्रियों के वंश का संहार किया?

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! उन दिनों हैहय वंश का अधिपति था अर्जुन। वह एक श्रेष्ठ क्षत्रिय था। उसने अनेकों प्रकार की सेवा-शुश्रूषा करके भगवान नारायण के अंशावतार दत्तात्रेय जी को प्रसन्न कर लिया और उनसे एक हजार भुजाएँ तथा कोई शत्रु यद्ध में पराजित न कर सके-यह वरदान प्राप्त कर लिया। साथ ही इन्द्रियों का अबाध बल, अतुल सम्पत्ति, तेजस्विता, वीरता, कीर्ति और शारीरिक बल भी उसने उनकी कृपा से प्राप्त कर लिये थे। वह योगेश्वर हो गया था। उसमें ऐसा ऐश्वर्य था कि सूक्ष्म-से-सूक्ष्म, स्थूल-से-स्थूल रूप धारण कर लेता। सभी सिद्धियाँ उसे प्राप्त थीं। वह संसार में वायु की तरह सब जगह बेरोक-टोक विचरा करता।

एक बार गले में वैजयन्ती माला पहने सहस्रबाहु अर्जुन बहुत-सी सुन्दरी स्त्रियों के साथ नर्मदा नदी में जल-विहार कर रहा था। उस समय मदोन्मत्त सहस्रबाहु ने अपनी बाँहों से नदी का प्रवाह रोक दिया। दशमुख रावण का शिविर भी वहीं कहीं पास में था। नदी की धारा उलटी बहने लगी, जिससे उसका शिविर डूबने लगा। रावण अपने को बहुत बड़ा वीर तो मानता ही था, इसलिये सहस्रार्जुन का यह पराक्रम उससे सहन नहीं हुआ। जब रावण सहस्राबाहु अर्जुन के पास जाकर बुरा-भला कहने लगा, तब उसने स्त्रियों के सामने ही खेल-खेल में रावण को पकड़ लिया और अपनी राजधानी माहिष्मती में जाकर बंदर के समान कैद कर लिया। पीछे पुलस्त्य जी के कहने से सहस्राबाहु ने रावण को छोड़ दिया।

एक दिन सहस्रबाहु अर्जुन शिकार खेलने के लिये बड़े घोर जंगल में निकल गया था। दैववश वह जमदग्नि मुनि के आश्रम पर जा पहुँचा। परम तपस्वी जमदग्नि मुनि के आश्रम में कामधेनु रहती थी। उसके प्रताप से उन्होंने सेना, मन्त्री और वाहनों के साथ हैहयाधिपति का खूब स्वागत-सत्कार किया। वीर हैहयाधिपति ने देखा कि जमदग्नि मुनि का ऐश्वर्य तो मुझसे भी बढ़ा-चढ़ा है। इसलिये उसने उनके स्वागत-सत्कार को कुछ भी आदर न देकर कामधेनु को ही ले लेना चाहा। उसने अभिमानवश जमदग्नि मुनि से माँगा भी नहीं, अपने सेवकों को आज्ञा दी कि कामधेनु को छीन ले चलो। उसकी आज्ञा से उसके सेवक बछड़े के साथ ‘बाँ-बाँ’ डकराती हुई कामधेनु को बलपूर्वक माहिष्मतीपुरी ले गये। जब वे सब चले गये, तब परशुराम जी आश्रम पर आये और उसकी दुष्टता का वृतान्त सुनकर चोट खाये हुए साँप की तरह क्रोध से तिलमिला उठे। वे अपना भयंकर फरसा, तरकस, ढाल एवं धनुष लेकर बड़े वेग से उसके पीछे दौड़े-जैसे कोई किसी से न दबने वाला सिंह हाथी पर टूट पड़े।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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